रुचि भल्ला की कविताएं
रुचि भल्ला की कविताएं इधर लगातार सामने आई हैं। उनकी कविताओं की ख़ासियत एक मुख़तसर सी विविधता है। वह भीतर से अधिक बाहर भटकती हैं अपनी कविताओं में और अक्सर बाहर के किसी दृश्य से भीतर के तन्तु जोड़ने की कोशिश करती लगती हैं। भूगोल उनका क्षेत्र हैं तो संवेदना उनकी ताक़त। इन दोनों के बीच खींचे महीन तंतु पर चलती वह भटकती हैं और इस भटकन में अक्सर नए जीवद्रव्य ढूंढ लाती हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते मुझे यह अक्सर लगा है कि जैसे वह अपने लिए एक भाषा की तलाश में हैं, जब वह मिलती है तो कविताओं में एक अद्भुत लय के साथ संगीत बजता है, जब नहीं तो एक खालीपन भर जाता है जो कम काव्यात्मक नहीं।
असुविधा पर 'स्त्री कविता माह" के अंतर्गत सुजाता की कविताओं के बाद प्रस्तुत हैं रुचि भल्ला की ये चार कविताएं -
John Collier की पेंटिंग The Confession |
भूरा साँप
जबकि कलकत्ता कभी
नहीं गई
फिर भी चली जाती हूँ
बेलूर मठ
बेलूर मठ को मैंने
देखा नहीं है
छुटपन में पढ़ा था
किसी किताब में
जब भी लेती हूँ उसका
नाम
थाम लेती हूँ बचपन की
उंगली
पाती हूँ ख़ुद को
स्मोकिंग वाली गुलाबी फ़्राॅक में
जो सिली थी अम्मा ने
प्रीतम सिलाई मशीन से
सात बरस की वह लड़की
दौड़ते हुए
इलाहाबाद से चली आती
है मेरे पास
जैसे पिता के दफ्तर
से लौटने पर
खट्ट से उतर जाती थी
घर की सीढ़ियाँ
जा लगती थी पिता के
गले से
जैसे महीनों बाद लौटे
हों पिता
सात समन्दर पार से
उम्र के चवालीसवें
साल में
कस्तूरी की तरह
तलाशती है अब
अपने बालों में उस
कड़वे तेल की गंध को
जब सात बरस में कहती
थी अम्मा से
बंटे सरीखी दो आँखें
बाहर निकाल कर
"और कित्ता
तेल लगाओगी अम्मा
भिगो देती हो चोटी
में बंधे
फीते के मेरे लाल फूल
"
लाल फूलों से याद आता
है
दादी कहती थीं तेरी
चोटी में दो गुलाब
तेरे गालों में दो
टमाटर हैं
बात-बात पर तुनकती
लड़ती चिढ़ाती
चालाकी से दादी को
लूडो में हराती वह लड़की
अब रोज़ ख़ुद हार जाती
है
जीवन के साँप -सीढ़ी
वाले खेल में
सौ तक जाते-जाते उसे
काट लेता है हर रोज़
निन्यानबे नंबर का
भूरा साँप
वह साँप से डर जाती
है
डर कर छुप जाना चाहती
है
इलाहाबाद वाले घर के
आँगन में
जहाँ माँ पिता और
दादी बैठा करते थे मंजी पर
देते थे घड़ी-घड़ी
मेरे नाम की आवाज़
बहुत सालों से मुझे
अब किसी ने
उस तरह से पुकारा
नहीं
मैं उस प्रेम की तलाश
में
इलाहाबाद के नाम को
जपती हूँ
जैसे कोई अल्लाह के
प्यार में फेरता है माला
इलाहाबाद को मैं उतना
प्यार करती हूँ
जितना शीरीं ने किया
था फ़रहाद से
कार्ल मार्क्स ने
किया था अपनी जेनी को
कहते हुए -
मैं तुम्हें प्यार
करता हूँ मदाम !
उससे भी ज्यादा जितना
वेनिस के मूर ने किया था
मैं इलाहाबाद को ऐसे
प्यार करती हूँ
जैसे नाज़िम हिकमत
कहते हैं प्रेम का स्वाद लेते हुए
प्रेम जैसे रोटी को
नमक में भिगो कर खाना हो
मैं नाज़िम हिकमत से
मिलना चाहती हूँ
बतलाना चाहती हूँ
कि इस्तानबुल में
जैसे गहराती है शाम
उससे भी ज्यादा
साँवला रंग होता है
इलाहाबाद का प्रेम
में
जब संगम पर फैलती है
साँझ की चादर
तुम नहीं जानोगे
नाज़िम
तुमने कभी चखा जो
नहीं है
इलाहाबाद को मीठे
अमरूद की तरह
मेरे दाँत के नीचे आज
भी दबा हुया है
अमरूद का मीठा एक बीज
कभी लौटना नाज़िम
दुनिया में
मैं दिखलाऊँगी
तुम्हें
सात बरस की बच्ची का
टूटा हुया वह दूध का दाँत
जिसे आज भी रखा है
मुट्ठी में संभाल कर
इलाहाबाद ने
येसु ! कहाँ हो तुम अब
गोवा चर्च का देश है
इलाहाबाद में भी हैं
चौदह गिरजे
अच्छे लगते हैं मुझे
गिरजे मोमबत्तियाँ घंटियाँ
मरियम और यीशू से
ज्यादा
मैंने चर्च से प्यार
किया है
जब प्यार हुआ था चर्च
से आठ बरस की थी मैं
अमर अकबर एंथनी पिक्चर
के एंथनी से
प्यार हो गया था
मुझको
उससे भी ज्यादा चर्च
के फादर से
फादर से ज्यादा
कन्फेशन बॉक्स से प्यार कर बैठी थी
धर्मवीर भारती का
उपन्यास गुनाहों का देवता तो नहीं पढ़ा था
फिर भी प्यार भरा
गुनाह कर लेना चाहती थी
कन्फेशन बॉक्स में
जाकर गुनाह को
कबूल करना चाहती थी
प्यार भरे गुनाह मैं
करती रही
कभी नहीं कह सकी फादर
से कि अच्छा लगता था
वह हीरोहौंडा वाला
मुसमलमान लड़का
कभी बोल नहीं सकी खुल
कर कि
अपने से छोटी उम्र के
ब्राह्मण उस लड़के की आवाज़ में जादू है
न ही कह सकी कभी धीमे
से भी कि वह बंगाली लड़का
जो बहुत बड़ा है
मुझसे कॉलेज के बाहर
ख़त लिये खड़ा रहता है
मेरे लिए
हमउम्र वह लड़का जो
पढ़ता था कक्षा दो से मेरे साथ
बारहवीं कक्षा में
गुलाब रखने लगा था किताबों में
कभी नहीं कह सकी थी
दिल की कोई बात फादर से
फादर से तो क्या मदर
मेरी से भी नहीं कह सकी मैं
जानते रहे हैं सब कुछ
यीशू पर मेरी ही तरह बेबस रहे
मैं पत्थर गिरजे में
जाकर कभी अपनी
कभी यीशू की बेबसी
देखती रही
प्रज्ञा भी जाती थी
आजमगढ़ के एक चर्च में
नन्ही हथेलियों को
जोड़ कर घुटने टेक बैठ जाती थी
मैं अब भी लगाती हूँ
चर्च के फेरे
गोवा में देखे हैं
मैंने तमाम गिरजे
अवर लेडी ऑफ
इमैक्यूलेट कन्सेप्शन
चर्च को भी देखा है
कहीं नहीं दिखा मुझे
वह चर्च
जिसके पीछे लगा है वह
एक पेड़
जिसके नीचे संजीव
कुमार शबाना आज़मी
से मिलना चाहते थे
हाथ थाम कर गाते थे
.....
चाँद चुरा कर लाया
हूँ तो फिर चल बैठें
चर्च के पीछे ....
मैं ईमानदारी से क़बूल
करती हूँ खुलेआम
पत्थर गिरजे के बाहर
खड़े होकर
मैंने चर्च से ज्यादा
एंथनी से प्यार किया है
मोमबत्तियाँ घंटियाँ
फादर से प्यार किया है
कन्फेशन बॉक्स से भी
ज्यादा
चर्च के पीछे लगे उस
एक पेड़ से किया है
चर्च के देश में जाकर
तलाशा है
उस एक चर्च को
मुझे वहाँ गोवा मिला
समन्दर सीपियाँ
काजू और मछली मिली
यीशू भी दिखे मरियम
भी मिली
सेंट ज़ेवियर भी थे
वहाँ
नहीं था तो बस वह एक
चर्च
चर्च के देश में
रंग का एकांत
राग वसंत क्या उसे
कहते हैं
जो कोकिला के कंठ में
है
मैं पूछना चाहती हूँ
कोयल से सवाल
सवाल तो फलटन की
चिमनी चिड़िया
से भी करना चाहती हूँ
कहाँ से ले आती हो
तुम नन्हे सीने में
हौसलों का फौलाद
बुलबुल से भी जानना
चाहती हूँ
अब तक कितनी नाप ली
है तुमने आसमान की हद
बताओ न मिट्ठू मियाँ
कितने तारे
तुम्हारे हाथ आए
कबूतर कैसे तुम
पहुँचे हो सूर्य किरण
को मुट्ठी में भरने
कौवे ने कैसे दे दी
है चाँद की अटारी से
धरती को आवाज़
आसमान की ओर
देखते-देखते
मैंने देखा धरती की
ओर
किया नन्हीं चींटी से
सवाल
कहाँ से भर कर लायी
हो तुम सीने में इस्पात ....
मैं पूछना चाहती हूँ
अमरूद के पेड़ से
साल में दो बार कहाँ
से लाते हो पीठ पर ढोकर फल
मैं सहलाना चाहती हूँ
पेड़ की पीठ
दाबना चाहती हूँ
चींटी के पाँव
संजोना चाहती हूँ
धरती के आँगन में
गिरे चिड़िया के पंख
पूछना चाहती हूँ अनु
प्रिया से भी कुछ सवाल -
जो गढ़ती हो तुम
नायिका अपने रेखाचित्रों में
खोंसती हो उसके जूड़े
में धरती का सबसे सुंदर फूल
कहाँ देखा है तुमने
वह फूल
कैसे खिला लेती हो
कलजुग में इतना भीना फूल
कैसे भर देती हो
रेखाचित्रों में जीवन
मैं जीवन से भरा वह
फूल मधु को देना चाहती हूँ
जो बैठी है एक सदी से
उदास
फूलों की भरी टोकरी
उसके हाथ में
थमा देना चाहती हूँ
देखना चाहती हूँ उसे
खिलखिलाते हुए
एक और बार
जैसे देखा था एक
दोपहर इलाहाबाद में
उसकी फूलों की हँसी
को पलाश सा खिलते हुए....
एक गंध जो बेचैन करे
एक अदद शरीफा भी आपको
प्यार में
पागल बना सकता है
सुमन बाई आजकल शरीफे
के प्यार में पागल है
शरीफे को आप आदमी न
समझिए
पर आदमी से कम भी
नहीं है शरीफा
कमबख्त पूरी ताकत
रखता है मोहपाश की
मैंने देखा है सुमन
बाई को
उसके पीछे डोलते हुए
उसके पेड़ की छाँव
में जाकर
खड़े होते हुए
जब देखती है उसे एकटक
उसके होठों पर आ जाता
है निचुड़ कर शरीफे का रस
मुझे देखती है और
सकपका जाती है
जैसे उसके प्यार की
चोरी पकड़ ली हो मैंने
आजकल उसका काम में मन
नहीं लगता
एक-आध कमरे की सफाई
छूट जाती है उससे
पर एक भी शरीफा नहीं
छूटता है
उसकी आँखों से
उसने गिन रखा है
एक-एक शरीफा
जैसे कोई गिनता है
तनख्वाह लेने के लिए महीने के दिन
उसे याद रहता है कौन
सा शरीफा पक्का है
कौन सा कच्चा
शरीफे को हाथ में
पकड़ कर दिखलाती है
उसकी गुलाबी लकीरें
कि अब बस तैयार हो
रहा है शरीफा
जैसे पकड़ लेती हो
शरीफे की नब्ज़
कभी उसे फिक्र रहती
है कि कोई पंछी न उसे खा जाए
कभी तलाशती है पंछी
का खाया हुआ शरीफा
बताती है पंछी के खाए
फल को खाने से
बच्चा जल्दी बोलना
सीखता है
मैं शरीफे को नहीं
सुमन को देखती हूँ
जब वह तोड़ती है
शरीफा
उसके बच्चों के भरे
पेट की संतुष्टि उसके चेहरे से झलकती है
शरीफे सी मीठी हो आती
है सुमन
अब यह बात अलग है कि
शरीफे के ख़्याल में
उससे टूट जाता है
काँच का प्याला
पर वह शरीफे को टूटता
नहीं देख पाती
इससे पहले कि वह पक
कर नीचे गिर जाए
वह कच्चा ही तोड़ लेती
है
ले जाती है अपने घर
मैं देखती हूँ उसके
आँचल में बंधा हुआ शरीफा
मुझे वह फल नहीं
प्यार लगता है
जिसे आँचल में समेटे
वह चलती जाती है
आठ किलोमीटर तक
पर उसे गिरने नहीं
देती
बारिश से भरी सड़कों
पर अपने कदम
संभाल कर चलती है
उसे ख़ुद के गिरने का
डर नहीं होता
पगली शरीफा खो देने
से डरती है
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रुचि भल्ला
संपर्क : Ruchibhalla72@gmail.com
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