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स्मृति - दूधनाथ सिंह

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कुलदीप कुमार दूधनाथ सिंह से पहला परिचय तब हुआ जब किशोरावस्था के उत्तरार्ध में मैंने उनकी रचनाएं पढ़नी शुरू कीं। आज भी एक कविता पंक्ति दिमाग में कौंधती रहती है हालांकि याद नहीं कि उनकी किस कविता में थी--- "लिफ्ट के अँधेरे में ब्रेन हैमरेज हो रहे हैं”। तारीफ करने में कंजूस उपेन्द्रनाथ अश्क उन्हें उनकी पीढ़ी का सर्वाधिक प्रतिभाशाली लेखक यूं ही नहीं मानते थे। 1973-74 में उनसे मुलाक़ात भी हो गयी और मुलाकातों का यह सिलसिला पिछले साल तक चला जब अचानक इलाहाबाद के कॉफ़ी हाउस में वे मिल गए। इन मुलाकातों के बीच लंबा अंतराल होने के बावजूद उनकी गर्मजोशी, आत्मीयता और स्नेह में कोई कमी नहीं आयी। उनके बारे में अनेक लोगों की अनेक किस्म की राय होगी, लेकिन मैंने उन्हें हमेशा आम जन के पक्ष में खड़े लेखक के रूप में पाया---जीवन में भी और लेखन में भी। यह अकारण ही नहीं है कि इलाहाबाद में उनकी अंतिम यात्रा में समाज के विभिन्न तबकों से जुड़े हजारों लोगों ने भाग लिया।  दूधनाथ सिंह ने विभिन्न तेवरों के साथ बहुत-सी कवितायेँ लिखीं---लोहिया से इंदिरा गाँधी तक की यात्रा कर चुके प्रसिद्द साहित्यकार

फ़िरोज़ खान की कविताएँ

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फ़िरोज़ कविताएँ लिख तो लम्बे समय से रहे हैं लेकिन अनियमित. या यों कहें कि अपने कवि होने को लेकर वह लिखते समय तो गंभीर होते हैं लेकिन उसके बाद प्रकाशन वगैरह को लेकर एकदम नहीं. परिणाम यह कि युवा कवियों की लिस्ट में आप उनका नाम नहीं पायेंगे. लेकिन उनकी कविताएँ मुझे हमेशा अपने समय में एक बेहद महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप लगती हैं. साम्प्रदायिकता के चहुँओर विस्तार के इस भयानक दौर में वह न केवल अल्पसंख्यक समाज के भय और उसके भीतर की बहसों को बहुत शाईस्तगी से सामने रखते हैं बल्कि एक गंभीर राजनैतिक समझदारी के साथ इसका प्रतिरोध रचते हैं. आज उनका जन्मदिन भी है, शुभकामनाओं सहित कुछ ताज़ा कविताएँ  डर की कविताएँ (एक) सपनों में अक्सर पुलिस आती है महीनों से नहीं, नहीं... शायद सालों से घसीट कर ले जा रही होती है पुलिस धकेल देती है एक संकरी कोठरी में और जैसे ही फटकारती है डंडा मैं चीख पड़ता हूँ जाग कर उठते हुए कब से जारी है यह सिलसिला मां के खुरदरे और ठंडे हाथ हथकड़ी से लगते थे उस वक्त माथे पर सर्दियों में भी माथे की नमी से जान गया था कि डर का रंग गीला और गरम होता है जलता हुआ चिपचिपा रंग