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संज्ञा उपाध्याय की कविताएँ

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 लमही के ताज़ा अंक में संज्ञा की कविताएँ देखना मेरे लिए सुखद आश्चर्य सा था.कविताओं की वह गंभीर और सहृदय पाठक है, यह  मैं  जानता था और यह भी कि उसने कभी-कभार जो कविताएँ लिखी हैं, उनके प्रकाशन को लेकर कभी उत्साहित नहीं रही. कहानियाँ उसकी आई हैं, बच्चों के लिए ख़ूब लिखा है और कथन के समय उसके वैचारिक लेखन से हम सब परिचित और प्रभावित रहे हैं.  लेकिन इन कविताओं को पढ़ते यह मान पाना बेहद कठिन है कि ये उसकी आरम्भिक कविताएँ हैं. भाषा की जो सहजता यहाँ है और जिस तरह का मितकथन है, वह आपको रोकता है और कवि के साथ दूर तक ले जाता है. यहाँ निज से सार्वजनीन तक की वह यात्रा है जो एक कविता को व्यापक पाठक वर्ग के लिए अपनी कविता बनाती है, वह इसमें अपने जीवन की छवियाँ देख पाता है. इन्हें पढ़ने के बाद मुझे उससे और कविताओं की उम्मीद रहेगी... भय नहीं घुल-धुल जाने का दिन भर धूप में तपी सूखी सूनी सड़क पर चलते हुए बेखयाली में बारिश और तुम बस यही है ख़याल में .   ठीक इन्ही शब्दों में यही पूरी बात चलते-चलते टाइप करती हूँ एक मैसेज में   भेजती हूँ और इंतज़ार भूल जाती हूँ जानती ह