उपासना झा की कविताएँ

 उपासना झा ने ढेर सारे उपक्रम किये हैं, होटल मैनेजमेंट से लेकर हिंदी में मास्टरी तक. उनकी कविताएँ अभी एकदम हाल में सामने आई हैं और उम्मीद जगाने वाली हैं. भाषा का एक सौष्ठव है उनके यहाँ जो विषय को गतिमान बनाता है. मैं फिलहाल इसे किसी विमर्श का नाम नहीं दूँगा लेकिन एक मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन के विश्वसनीय चित्र उनके यहाँ जिस तरह आते हैं वे भविष्य की और गहन, और मानीखेज़ कविताओं की राह खोलते हैं. असुविधा में उनका स्वागत.



उदास औरत

(एक)

जब तय था कि समझ लिया जाता
मोह और प्रेम कोई भावना नहीं होती
रात को नींद देर से आने की
हज़ार जायज़ वजहें हो सकती हैं
ज़रा सा रद्दोबदल होता है
बताते हैं साईन्सगो,
हार्मोन्स जाने कौन से बढ़ जाते हैं
इंसान वही करता है
जो उसे नहीं करना चाहिए
गोया कुफ़्र हो 

जब दीवार पर लगे कैलेंडर पर
दूध और धोबी का हिसाब भर हो तारीखें
उन तारीखों का रुक जाना
क्या कहा जायेगा 

साल के बारह महीने एक सा
रहनेवाला मौसम अचानक
बदल जायेगा तेज़ बारिश में,
जब ऐसी बरसातों में वो पहले
भीग कर जल चुकी थी,
जब मान लिया जाना चाहिए
कि ज्यादा पढ़ना दिमाग पर करता है
बुरा असर
ये तमाम किताबें और रिसाले
वक़्त की बर्बादी भर हैं
जो इस्तेमाल किया जा सकता था
पकाने-पिरोने-सजाने-संवारने में
और बने रहने में तयशुदा

जब समझ लिया गया था
चाँद में महबूब की शक़्ल नहीं दिखती
न प्यार होने से हवाएं
सुरों में बहती हैं
न धूप बन जाती है चाँदनी
न आँसू ढल सकते हैं मोतियों में
न जागने से रातें छोटी होती है

उस उम्र में अब ऐसा नहीं होना था
उन उदासी से भरे दिन-दुपहरों में
हल्दी और लहसन की गंध
में डूबी हथेलियों वाली
औरत को उसदिन
महसूस हुआ कि उसके पाँव
हवा में उड़ते रहते हैं।
उसने कैलेंडर पर एक और
कॉलम डाला है-
रोने का हिसाब....

(दो)
उस बेकार, मनहूस औरत ने
कई दिनों से आइना नहीं देखा था
उसे हुक़्म था कि फ़ालतू के कामों में
वक़्त जाया न किया जाए
बेध्यानी में एक दिन
उस औरत ने कैलेंडर पर
एक तारीख़ के नीचे
लिख दिया था कि 'रोना है' 

वो तारीख़ कब की बीत गयी थी
बीत गयी बारिशों की तरह
उसे फ़ुरसत का एक दिन चाहिए था
जब वो रोने का हिसाब करे
दिन बीत जाते थे
तवे पर पड़ी पानी की बूंदों से
ऐसे में उसने एक दिन आइना देखा
रातों की स्याही आँखों के नीचे देखी
उसने वो कैलेंडर उतारकर
कल रात हाथ सेंक लिया
और अपने बदन की कब्र में
कुछ और आँसू दफ़्न किये। 


(तीन)
औरत की पीठ पर एक तिल था
और एक था उसकी दाईं कान के नीचे
दुनिया के सब हसरतें
उन दो हिस्सों में कैद थीं,

औरत अक़्सर जोर-जोर से हँसती
और बदले में सुनती
'कैसे हँसती हो तुम के ताने'
आँखों में पढ़ती 'पागल औरत' 

औरत डरती नहीं थी पिंजड़ों से
सदियों से साथ रहकर
वो जानती थी जंजीर भी
उसकी ही तरह बेबस है
पीठ के तिल से जरा नीचे
कोई नीला निशान नहीं होता था
न ही दाएं कान के पास
होती थी कोई खरोंच
दोनों हाथ उठाकर जूड़ा बाँधते हुए
औरत अक्सर बुदबुदाती थी
शायद कोई प्रार्थना या
किसी बिसरे यात्री का नाम



लौटना और भूलना

खिड़कियों पर जमी ओस पर
मैं उकेरूँगी कोई आसान चिन्ह
कोई सीधी लकीर या कोई टूटता तारा
या कुछ भी जो न लिखे तुम्हारा नाम
सुबह सुने जा सकते हैं कई स्वर
कई धुनें, कई राग-रागिनियाँ
कई बूझ-अबूझ संगीत भी
जो भुला रखे तुम्हारी आवाज़ पहनने की लत
सुबह की जा सकती हैं कई प्रार्थनाएं
रात की कई धुँधली कामनाओं के बाद
उन प्रार्थनाओं में तुम न आओ 

एक अधजली इच्छा रखूँगी दिए की जगह
किसी सुन्दर कविता की किसी ठहरकर
पढ़ी जाने वाली पँक्ति को पढूँगी
बिना तुम्हारी मुस्कान याद किये
बिना तुम्हारे चेहरे की छांह छुए
रंग-फूल-गंध-धूप-हवा-पानी-रात-दिन
सब शाश्वत हैं फिर भी बदल जाते हैं

मर जाना नहीं होता साँस लेना बंद करना
जन्म लेना नहीं होता है नयी देह पाना
मैं इस तरह कई छोटे कदम चलूँगी
वापसी की ओर,
लौट आना और भूल जाना दोनों
लगते एक हैं, होते अलग हैं..



धुंधली इबारत

कई स्थगित आत्महत्याओं की
धुंधली इबारत
होते हैं हम सभी
कभी न कभी
दर्ज़ है जिसमें पहली दफ़ा
और उसके बाद कई बार
दिल का टूट जाना
उतनी ही बार दर्ज़ है ये शिक़ायत
कि दुनिया ज़ालिम है।
उस खंडहर पर एक आइना है
जिसमें चमकता है वो गहरा घाव
बड़ा गहरा
उस दिन का निशान लिए
जब अपने चारों उगाये थे कई बाड़
कई टूटी हुई, छूटी हुई शामें
और कई बिखरे हुए यकीन
उन नामों के साथ समय ने उकेर
दिए हैं
जो नाम खुद के नाम से ज़्यादा
अपने लगते थे
उन धुँधली-ढहती इबारतों में दर्ज हैं
कई चाँद-राते
कई सूने दिन
कई सर्द क़िस्से
कई रिसते रिश्ते
कई सख़्त रस्ते
जिनसे गुज़रे हैं
हम सभी... कभी न कभी

टिप्पणियाँ

Onkar ने कहा…
झकझोरनेवाली कविताएँ
geetesh ने कहा…
अच्छी कविताएँ ।
Ishan Trivedi ने कहा…
और अधिक क्या कहूँ... उपासना जैसी कवियत्री का दोस्त होने में गौरव महसूस करता हूँ... बहुत ही अच्छी कवितायेँ हैं तीनों...
sheshnath pandey ने कहा…
बढ़ियां, संवेदित करने वाली कविताएँ.
Vidhukanta Mishra ने कहा…
Mamsparshi evam samvedanshil rachna sangrah
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा आज रविवार (09-04-2017) के चर्चा मंच

"लोगों का आहार" (चर्चा अंक-2616)
पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
'एकलव्य' ने कहा…
बहुत खूब ,सुंदर रचना
कौशल लाल ने कहा…
सुन्दर कविता
Sadhana Vaid ने कहा…
बहुत-बहुत सुन्दर ! हर कविता जैसे दिल के बहुत करीब सी है ! इतने सम्पूर्ण समग्र लेखन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई !
Punam ने कहा…
मन को छू लेने वाली कविताएं तो हमेशा लिखती हैं... ये वाली भेद गयी!
Punam ने कहा…
मन को छू लेने वाली कविताएं तो हमेशा लिखती हैं... ये वाली भेद गयी!
अन्दर तक हिला जाती हैं दोनों कवितायें ... बहुत लाजवाब ...
बेनामी ने कहा…
अच्छी कवितायेँ हैं तीनों...
Anil Sahu ने कहा…
भाई वाह! कवितायेँ पसंद आईं.
दोनों कवितायें ... बहुत लाजवाब
Jyoti ने कहा…
Bhut hi sunder rachna hai.
Prasoon Parimal ने कहा…
ग़ज़ब की टीस है कविताओं में....
Prasoon Parimal ने कहा…
ग़ज़ब की टीस है आपकी कविताओं में..' उदास औरत ' के ' आँसुओं का हिसाब ' तब संभव है जब ' दफ़्न आँसुओं ' को हटाकर देखना संभव हो सके....उसकी ' गुमनाम ' प्रार्थना के स्वर सुनी जा सके.....वैसी संवेदनहीन व्यवस्था जो
' लौटना और भूलना ' के मध्य फ़र्क़ करती अत्यंत क्षीण - सी विभाजन रेखा या कोई सरल संकेत को महसूस तक न कर पाए ,वहाँ ' अधजली इच्छाएँ ' कई स्थगित आत्महत्याओं की
"धुंधली इबारत " ही तो होती है....ओह !!उपासना जी...बर्फ़ की मौन पतली परत तले बहती वेदना की नदी है आपकी ये तमाम अद्भुत कविताएँ !!
बेनामी ने कहा…
बहुत सुंदर। सशक्त भाषा और मौलिक बिंब।दुख या उदासी नहीं बस एक चित्र उकेरती कविताएं हैं जो पाठक का आह्वान करती हैं कि देखो।
बहुत बधाई।

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