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उपासना झा की कविताएँ

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  उपासना झा ने ढेर सारे उपक्रम किये हैं, होटल मैनेजमेंट से लेकर हिंदी में मास्टरी तक. उनकी कविताएँ अभी एकदम हाल में सामने आई हैं और उम्मीद जगाने वाली हैं. भाषा का एक सौष्ठव है उनके यहाँ जो विषय को गतिमान बनाता है. मैं फिलहाल इसे किसी विमर्श का नाम नहीं दूँगा लेकिन एक मध्यवर्गीय स्त्री के जीवन के विश्वसनीय चित्र उनके यहाँ जिस तरह आते हैं वे भविष्य की और गहन, और मानीखेज़ कविताओं की राह खोलते हैं. असुविधा में उनका स्वागत. उदास औरत (एक) जब तय था कि समझ लिया जाता मोह और प्रेम कोई भावना नहीं होती रात को नींद देर से आने की हज़ार जायज़ वजहें हो सकती हैं ज़रा सा रद्दोबदल होता है बताते हैं साईन्सगो, हार्मोन्स जाने कौन से बढ़ जाते हैं इंसान वही करता है जो उसे नहीं करना चाहिए गोया कुफ़्र हो  जब दीवार पर लगे कैलेंडर पर दूध और धोबी का हिसाब भर हो तारीखें उन तारीखों का रुक जाना क्या कहा जायेगा  साल के बारह महीने एक सा रहनेवाला मौसम अचानक बदल जायेगा तेज़ बारिश में, जब ऐसी बरसातों में वो पहले भीग कर जल चुकी थी, जब मान लिया जाना चाहिए कि ज्यादा पढ़ना दिमाग पर करता ह

'अनारकली ऑफ आरा’ - जीवन के विरोधाभासों के करीब

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विभावरी  अनारकली ऑफ आरा’ देखने की बहुप्रतीक्षित ललक, पहले हफ्ते के आखिरी दिन लगभग आखिरी शो देख कर खत्म हुई. किसी फिल्म को नकार देना बेहद आसान काम है बनिस्पत उस फिल्म से उन चीज़ों को निकाल लाने के जो एक दर्शक अथवा एक समाज के बतौर हमारे काम की हो सकती हैं. सिनेमा सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है. यह जानते समझते हुए भी मैं यह नहीं समझ पाती कि तमाम जनता सिनेमा को सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन के साधन के रूप में ही क्यों देखना चाहती है??  इस लिहाज़ से देखूं तो ‘अनारकली ऑफ आरा’ न सिर्फ़ इश्यू बेस्ड है बल्कि मनोरंजन के तत्वों से भी भरी हुई है. और ऐसी फिल्मों को अक्सर ‘मिडिल सिनेमा’ का नाम दे दिया जाता है.  जब इस फिल्म का टीज़र देखा था तभी यह महसूस हुआ था कि फिल्म में एक अलग तरह का रुझान है. उस वक़्त यह अलगाव शायद ठीक ठीक समझ न आया था लेकिन जब फिल्म देखने का मौका मिला तभी यह बात एक रेखांकित हो पाई. अनारकली को यदि आप खांटी मनोरंजन के लिहाज़ से देखने जा रहे हैं तो आपको निराशा हाथ लगेगी और यदि आप इसे विशुद्ध समानांतर सिनेमा के नज़रिए से देखने की कोशिश में हैं तो भी शायद आपकी अपेक्षाएं पूरी न हों. दरअसल