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प्रदीप कुमार सिंह की कविताएं

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प्रदीप कुमार सिंह के पास काव्य परम्परा का ज्ञान है इसलिए वे बरते गए विषयों और कथ्य को मौजूद परिस्थितियों के मुताबिक पुनर्नवा करते हैं और यही उनका कौशल है कि सटीक व्यंजना के लिए उन्हें अति विस्तार में नहीं जाना पड़ता। वे चुने हुए शब्द और सधे वाक्य लिखते है सरल और सपाट जैसे की सामने का जीवन-सत्य का साक्षात करवा रहे हों। इसी जीवन-सत्य का सीधा प्रसारण उनकी कविता का वैशिष्ट्य है। प्रदीप का कवि गाँव, शहर, महानगर, देश और विश्व पर हो रहे आघातों-प्रत्याघातों और कारनामों पर नज़र बनाये हुए है और उनके परिणामों को भी अत्यंत संवेदी नज़रिये से प्रस्तुत कर रहा है। युद्ध की वास्तविक परिणति, स्त्री सरीखी नदियों का दुःख, सपने देखने की मनुष्योचित प्रवृत्ति का अपराध बन जाना, बुज़ुर्गों की अर्थहीन होते जाने की विडम्बना और किसानों की आत्महत्या -यह सब मिलकर कवि को उत्तरदायी चेतना से लैस करते हैं और वह इन्हें अपनी कविता में प्रतिरोधी काव्यात्मकता से अभिव्यक्त करता है। प्रदीप कुमार सिंह की काव्यात्मक सम्भावना सराहने योग्य है। कुमार अनुपम कुमार अनुपम की पेंटिंग : एजेज़  युद्ध युद्ध से नहीं

नूर ज़हीर की कहानी "चकरघिन्नी" : तीन तलाक़ का दु:स्वप्न

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आज  जब  ट्रिपल  तलाक़  पर  देश  भर  में  बहस  चल  रही  है  तो  सबसे  ज़रूरी  पक्ष  है  उन  स्त्रियों का जो इस कुप्रथा का सीधा दंश झेलती हैं. शरीयत की बहसों से आगे यह प्रथा एक स्त्री के जीवन को पुरुष के समक्ष दोयम दर्ज़े का ही नहीं बनाती बल्कि देह और जीवन से उसका अधिकार पूरी तरह छीन लेती है. प्रतिष्ठित कहानीकार नूर ज़हीर की यह कहानी इस दर्द को रेशा-रेशा खोलती है. यहाँ यह  कहानी  इन्द्रप्रस्थ भारती  पत्रिका से साभार. ________________________________ वो दुबकी हुई एक कोने में बैठी थी, लेकिन ज़किया को बराबर यह एहसास हो रहा था की वह कुछ कहना चाह रही है। वैसे महिलाओं का जमघट हो और सभी एक साथ बात न कर रही हों, ऐसा कहाँ संभव है। सभी लगातार कैएं कैएं कर रही थीं और दो तीन बार ज़किया को उन्हें डांट कर, स्कूल के क्लास के बच्चों की तरह एक एक करके बुलवाना पड़ा था। लेकिन जब भी उसपर नज़र जाती वो हलके से मुस्कुरा कर नीचे देखने लगती। उसके दोनों तरफ बैठी औरतें कोहनी मार कर "बोलो न! बोलती क्यों नहीं हो? तो फिर आई क्यों हो?" कहकर उसे उकसा चुकी थीं. लेकिन वह चुप रही थी। तीन घंटे से ज़्याद