सुमन केशरी की ग्यारह कविताएँ
सुमन जी परम्परा के साथ एकात्म होने की हद तक तादात्म्य बिठा कर अपने समय से सीधा संवाद करने वाले विरले कवियों में से हैं. मिथकों, लोक कथाओं और पारम्परिक स्रोतों से जितना ईंधन उन्होंने लिया है उतना शायद ही किसी समकालीन कवि ने. और इस आँच पर जो पक कर निकला है वह समय की विद्रूपताओं को उद्घाटित करने और उनसे टकराने के लिए अपने संयमित किन्तु दृढ़ स्वर में प्रतिबद्ध काव्य संसार है. हमारे अनुरोध पर उन्होंने असुविधा को ये कविताएँ उपलब्ध कराई हैं, देरी के लिए माफ़ी के साथ हम उनके आभारी हैं. मछलियों के आँसू.. वे मछलियों के आँसू थे जो अब उस विशाल भवन की दीवारों पर बदनुमा दाग बन कर उभर रहे थे अलग अलग शक्ल अख्तियार करते.. ये धब्बे बढ़ते चले जाते थे ऊपर और ऊपर... एक दिन देखा छत पर आकृतियाँ बन गई हैं घड़ियाल , मछली , घोंघे , सीप , बगुले-बतखें , मान सरोवर वाले हँसों की.. कुछ अनजानी वनस्पतियाँ उग आई थीं छिटपुट कहीं कहीं आसमान सूखा था निपूती विधवा की आँखों – सा एकदम विरान निष्प्राण... विदा होती बेटियाँ मैं देखना चाहती थी विदा होती बेटियों की आँखों म