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प्रकृति करगेती की तीन कविताएँ

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पेशे से पत्रकार प्रकृति करगेती एकदम युवा पीढ़ी की कवि हैं. अब तक कई जगहों पर छप चुकी प्रकृति की कविताओं में एक भव्य सादगी है भाषा की तो अनुभवों की बारीक़ पच्चीकारी भी. उनके पास ओबजर्वेशंस हैं और उन्हें कविता में कहने की कला भी वह लगातार सीख रही हैं और परिमार्जित कर रही हैं. असुविधा पर उनका स्वागत है. नंबर लाइन मैं होने , और न होने की छटपटाहट में खुश हूँ न होना मुश्किल है और होना एक संभावना होने में जो सब होगा , उतना ही नहीं होने में नहीं होगा पर इस होने और न होने के बीच एक शून्य है मेरे पास उसी के आगे होना है , और उसी पीछे न होना जो भी हो या न हों मैं इस होने और न होने की छटपटाहट में खुश हूँ क्यूँकि मैं दोनों ही में अंतहीन हूँ सभ्यता के सिक्के सभ्यता अपने सिक्के हर रोज़ तालाब में गिराती है कुछ सिक्के ऐसे होते , जिनपर लहलहाती फ़सल की दो बालियाँ नक्काश होती हैं या कुछ पर किसी महानुभाव की तस्वीर या गए ज़माने का कोई विख्यात शासक ही ये सभी , और इनके जैसे कई सिक्के सभ्यता की जेब से सोच समझकर ही गि

कहानी- जंगल

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जंगल   झिर्रियों से आ रही हवा किसी धारदार हथियार की तरह जख़्मी कर रही थी। गोमती ने साड़ी का पल्लू चेहरे पर लपेट लिया और बाबू को और कस के भींच लिया। रामेसर ने बीड़ी सुलगा ली थी। गोमती का मन किया कि मांग के दो कश लगा ले तो थोड़ी ठंढ कटे। यह सोच कर ही उसके होठों पर एक हल्की सी मुसकराहट तैर गयी … बचपन में दादा बीड़ी सुलगाने के लिये देते तो चूल्हे से सुलगाने के बहाने दो फूंक मार लेती थी और कभी-कभी बूआ के साथ बंडल से दो बीड़ी पार करके नहर उस पार की निहाल पंडिज्जी की बारी में बुढ़वा पीपल के पीछे … पीपल का ख़्याल आते ही जैसे ढेर सारा कड़वा थूक मुंह में भर आया हो … एकदम से पूछा , ‘ केतना घण्टा और लगेगा ’… रामेसर ने बीड़ी का अंतिम कश खींचा और फिर ठूंठ को खिड़की से रगड़ते हुए बोला , ‘ दू बज रहा होगा … सात बजे का टाइम है … सो काहे नहीं जाती ?’…’ नींद नहीं आ रहा है ’… उसने ठंढ का जानबूझकर कोई जिक्र नहीं किया था।  ‘ काहें घर का याद आ रहा है का ’  रामेसर ने मफ़लर को और कस के लपेटते हुए पूछा। ‘ नाहीं ’… उसने ऐसे ही चारो तरफ़ नज़रें फिराईं। डब्बा खचाखच भरा हुआ था। खिड़की के पास को दो सीटों में खुद वे चार जन

शोक काल : सूरज की लम्बी कविता

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दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए द्वितीय वर्ष के छात्र सूरज एकदम युवतर पीढ़ी के कवि हैं, अंखुआती दाढ़ी  मूछ  के साथ अंखुआते क्रोध और अंतर्द्वंद्व के कवि. उनकी कुछ कविताएँ अभी हाल में पढ़ी तो चौंका नहीं बल्कि एक आश्वस्ति से भर गया. समकालीन कविता में नयेपन की चिरपुरातन मांग के दबाव में चमत्कारी वाक्य लिखते कवियों के बीच अपने कथ्य के प्रति गहन सम्बद्धता और शिल्प के प्रति एक लापरवाह सी सावधानी मुझे सदा से आकर्षित करती है, सूरज के यहाँ वह जनपक्षधर कहन के साथ और निखर कर आई है. इतना सा कहकर मैं आपको उनकी कविताओं के साथ अकेले छोड़ता हूँ...   शोक काल (एक) शब्दों   में   प्रतिरोध   की   अनुगूँज   है सभ्यता   के   अंधे   कुएँ   में   गूँज   रहे   हैं   , किसी   भयावह   आपदा   के   पूर्वाग्रह , गड़गड़ाते ,  अट्टहास   करते है ,  अँधेरे में , संदेह   और   अवसाद    के   मानसूनी   बादल थरथराता   हुआ - सा   है , कहीं   गहरे   में   लटकी   हुई किसी   पेंड़   की   सूखी   टहनियों   पर लगा दीमक   मृतप्राय   पेड़   की   अस्थियों   में   कोई   है , दीमक   की   नसों   में दबे