यह किसकी आत्महत्या है- देवेश की कविता
देवेश कविता लिख तो कई सालों से रहा है लेकिन अपने बेहद चुप्पे स्वभाव के कारण प्रकाश में अब तक नहीं आ सका. आज जब प्रतिबद्धता साहित्य में एक अयोग्यता में तब्दील होती जा रही है तो उसकी कवितायें एक ज़िद की तरह असफलता को अंगीकार करती हुई आती है. उसकी काव्यभाषा हमारे समय के कई दूसरे कवियों की तरह सीधे अस्सी के दशक की परम्परा से जुड़ती है और संवेदना शोषण के प्रतिकार की हिंदी की प्रतिबद्ध परम्परा से. इस कविता में उसने विदर्भ के गाँवों की जो विश्वसनीय और विदारक तस्वीर खींची है वह इस विषय पर लिखी कविताओं के बीच एक साझा करते हुए भी एकदम अलग है. इस मित्र और युवा कवि का स्वागत असुविधा पर. जल्द ही उसकी कुछ और कवितायेँ यहाँ होंगी. यह किसकी आत्महत्या है (एक) श्मशान का जलता अँधेरा चीखता है बहुत तेज़ शवगंध से फटती है नाक धरती की इन सबसे बेपरवाह डोम , सीटी बजाता , झूमता , चुनता है हड्डियाँ और नदी में डाल देता है.. डोम राजा है शव प्रजा नदी अवसाद में है.. (दो) बहुत दूर से चली आती है बांसुरी की आवाज़ सनकहवा बांसुरी बजाता जा रहा है भीड़ मारती है पत्थर , वह