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राकेश रोहित की छः कविताएँ

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राकेश रोहित की कविताएँ मैंने अभी ब्लाग्स और फेसबुक पर ही पढ़ी हैं। वह काफी सक्रिय हैं और कविता को लेकर उनकी चिंताएँ भी अक्सर सामने आती रहती हैं हालाँकि ये चिंताएँ कविता के भीतर तक नहीं सीमित। राकेश भाषा को लेकर सजग हैं और विषयों की तलाश में अपने अगल बगल से लेकर देश दुनिया में भटकते हैं। असुविधा पर पहली बार प्रकाशित करते हुए मैं उनका स्वागत करता हूँ (आजकल हार्दिक के अर्थ बदल गए हैं ... तो सिर्फ स्वागत। ) और उम्मीद करता हूँ आगे भी उनका सहयोग मिलता रहेगा।   जिजीविषा डूबने वाले जैसे तिनका बचाते हैं मैं अपने अंदर एक इच्छा बचाता हूँ। कहने वालों ने नहीं बताया नूह की नाव को यही इच्छा खे रही थी प्रलय प्रवाह में! संसार की सबसे सुंदर कविताएँ और बच्चे की सबसे मासूम हँसी इसी इच्छा के पक्ष में खड़ी होती हैं। आप कभी गेंद देखें और पास खड़ा देखें छोटे बच्चे को आप जान जायेंगे इच्छा कहाँ है! सुविधा और दिशा सड़क पर निकलते ही अपने रूट की खाली बस देखकर मैं चौंक गया भीड़ बिल्कुल नहीं थी कम लोग थे और खिड़की वाली सीट भी खाली थी। पर मैं उस पर चढ़ नहीं

सर्वेश सिंह की कविताएँ

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युवा कवियों की कविताओं की इस प्रस्तुति में रीतेश मिश्र , अमित उपमन्यु और अरुण श्री के बाद आज सर्वेश सिंह की कविताएँ प्रस्तुत हैं. एक डिग्री कालेज में हिंदी के प्रवक्ता सर्वेश कविता के अलावा कहानियाँ भी लिखते हैं और आलोचना में ख़ासे सक्रिय हैं. उनकी कविताओं में एक ख़ास तरह का विट है जो उतना महानगरीय नहीं जितना कस्बाई है. यह क़स्बाई ठाट और जिद उनके यहाँ लगातार उपस्थित है कई बार कविताई से समझौते के बावज़ूद. शिल्प को लेकर वह अभी बहुत सावधान नहीं हैं, लेकिन कथ्य के साथ वह कोई समझौता नहीं करते. "जागती रहो कवयित्री" जैसी कविता में उनके भीतर का सहानुभूति से भरा मनुष्य एक कविता सभा में उपस्थित कवियों की गिद्ध दृष्टि को देखकर चिंतित तो होता है लेकिन वह इस दृष्टि को ठेंगे पर रख निश्चिन्त सो रही आधुनिक स्त्री को नहीं देख पाता. "कितना तो सच" जैसी कविता में उनका विट और एक सकारात्मक गुस्सा अपनी कलात्मकता और कौशल के साथ सामने आता है.  अभी इतना ही कहते हुए शेष पाठकों के लिए छोड़ता हूँ और सर्वेश का असुविधा पर हार्दिक स्वागत करता हूँ. उम्मीद है उनका सहयोग आगे भी मिलता रहेगा.