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रीतेश मिश्र की कविताएँ

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रितेश वैसे तो पत्रकार हैं, घुमक्कड़ हैं, कवितायें लिखते हैं लेकिन अगर उनके लिए कोई विशेषण उपयोग ही करना हो तो कहूँगा ठेठ इलहाबादी हैं. मुहफट, बिंदास और गहरी बातों को बेसलीका कहने का सलीका.  बहुत पहले माँ पर लिखी उनकी एक कविता के ज़रिये उनके कवि रूप से परिचय हुआ था. अपने कहन में माँ को लेकर गलदश्रु भावुकता से भरी कविताओं के बीच इस एकदम युवा कवि की वह कविता इसके "भीड़ से अलग" होने की गवाही दे रही थी. हालांकि अपने स्वभाव के अनुरूप कविता लिखने को उन्होंने उस तरह "गंभीरता" से नहीं लिया, जैसे आजकल चलन है लेकिन बीच बीच में उनकी कविताएँ आती रही हैं. उनकी एक कविता हमने कविता कितबिया वाले सेट में भी शामिल की थी.  आज यहाँ उनकी दो कविताएँ और कुछ दोहे    चहकौरे काली उरद की खड़ी दाल और बिना ' धोया -बिना ' चावल कि माई चली गयी थीं गुप्त रास्तों से अपने विलासता के स्वप्न लोक में रात सोते हुए जब उत्तर से दक्खिन सर बदला माई धीरे से बोलीं " बड़कऊ ?" इतनी करीब थीं माई कि अम्मा बहुत दूर हो गयीं अब , कभी न सुन पाने वाले समय में महसूसत

यह समर्पण ध्वनि है -तूर्य की सी बुझती हुई

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आज अपनी एक कविता जो तद्भव के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है.  (शुक्लाष्टमी) [1] रात का वक़्त है नहीं है यह बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न सा पर वक़्त नहीं है रात का देखो साफ़ दिख रहा है आसमान में सूरज जैसे किसी लाश की खुली रह गयी आँख आसमान वीभत्स और विवस्त्र कि जैसे किसी ने झटके से खींच दिया हो चाल का परदा फटे टाट वाला और उसमें मुचमुचाया सूर्य जैसे भौंचक ताकता कोई बूढ़ा अपाहिज बादलों के मटमैले टुकड़े कि जैसे उसके वस्त्र हों कीचट हवा की सांय-सांय जैसे अर्धनग्न बच्चियों की चीत्कार , भाग-दौड़ वक़्त नहीं है रात का यह अंधेरों पर नहीं थोप सकते अपने अंधत्व का दोष हम. नीम उजाला भी नहीं चमकती रौशनी में चला आ रहा है राजा का रथ काले अरबी घोड़ों से जुता लहू के कीचड़ में दौड़ता चीरता धरती के सीने को रोज़ नए जख्म बनाता गूंजता है स्वर विजयी तूर्य का भयावह ध्वजा पर देवता सवार सारे पुरोहितों के मंत्रोच्चार से भयभीत पक्षियों की चीत्कार से भर गया है आकाश तांत्रिक शहरों के बीच-ओ-बीच पढ़ रहे उच्चाटन कर रहे हवन ॐ लोकतंत्राय स्वाहा ॐ मनुष्यत