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मनोरमा की कविताएँ

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मनोरमा की ये कविताएँ काफ़ी पहले मुझे मिली थीं. फिर अपना आलस्य, लापरवाही. तो क्षमायाचना के साथ आज पोस्ट कर रहा हूँ. इन कविताओं के शीर्षक नहीं हैं. मैंने अपनी ओर कोई शीर्षक देना उचित भी नहीं समझा. इन्हें पढ़ते हुए आप उस चिंतन प्रक्रिया से गुज़रते हैं जिनसे ये कविताएँ निसृत हुई हैं. इनमें जीवन की बहुत मामूली लगने वाली चीज़ें हैं लेकिन उनका बहुत महीन आबजर्वेशन है.  प्रेम उनका मुहाविरा है और इसी मुहाविरे के इर्द गिर्द एक  स्त्री के जीवन की विडंबनायें हैं, स्मृतियाँ और खुशियां. असुविधा पर उनका स्वागत. (1) ईश्वर कितना होता है कितना नहीं होता  पर क्यों अच्छा लगता है, घर में इबादत की एक जगह होना बातें पूरी हो तब भी, बातें नहीं हों तब भी रहनी चाहिए हाशिये की जगहें भी  अपने लिए सटीक शब्द अक्सर पास नहीं होते  इसलिए लिखते -लिखने छोड़ देना चाहिए, कुछ जगहें खाली  नींद ,ख्वाब और हक़ीक़त एक सीधी रेखा में रहते हैं  छूट जाती हैं नींदे, ख्वाबों को पाने में  चलना, चलते रहना और कहीं नहीं पहुंचना शायद मंजिलों से ज्यादा सकून होता है  पहचानी बस्तियों में लौट जाने में  कु

रविकान्त की कविताएँ

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1975 में जन्में कवियों से एक ख़ास तरह का मोह होना मेरे लिए स्वाभाविक ही है. फिर लगभग एक जैसी सामाजिक परिस्थितियों में रहते हुए राजनीतिक सामाजिक बवंडरों से भरा साझा नब्बे का दशक बहुत करीब ले आता है. रविकांत से पहली मुलाक़ात के बहुत पहले यह आत्मीयता उनकी कविताओं से जोड़ चुकी थी मुझे.  वैसे भी रविकांत हमारे समय की बहुत सारी स्थापनाओं का विलोम हैं. दिल्ली में रहते हैं लेकिन साहित्यिक आयोजनों से अक्सर अनुपस्थित रहते हैं. यह गुण चेतनक्रान्ति और देवी प्रसाद मिश्र के अलावा मुझे किसी में नहीं मिलता. फिर फेसबुक पर हैं लेकिन अपने कवि रूप को लेकर आत्मप्रचार तो छोडिये परिचय की हद तक भी सचेत नहीं. साहित्यजगत में कोई दो दशकों से हैं लेकिन तमाम गुणा भाग से दूर. अब यह अवगुण भले बन गया हो लेकिन एक कवि के लिए यह कितना ज़रूरी है इसे लगातार मैं महसूस कर पा रहा हूँ. रविकांत की कवितायें ऊपर से एकदम सहज लगती हैं. हमारे समय के उन कवियों से बिलकुल अलग जो सहज न दिखने के चेतन प्रयास में अपने कवि की लगातार ह्त्या किये जा रहे हैं. फिर उनकी कविताओं में मनुष्य से जो प्रेम है, शब्दों और भाषा से जो विरल लगाव ह