मनोरमा की कविताएँ
मनोरमा की ये कविताएँ काफ़ी पहले मुझे मिली थीं. फिर अपना आलस्य, लापरवाही. तो क्षमायाचना के साथ आज पोस्ट कर रहा हूँ. इन कविताओं के शीर्षक नहीं हैं. मैंने अपनी ओर कोई शीर्षक देना उचित भी नहीं समझा. इन्हें पढ़ते हुए आप उस चिंतन प्रक्रिया से गुज़रते हैं जिनसे ये कविताएँ निसृत हुई हैं. इनमें जीवन की बहुत मामूली लगने वाली चीज़ें हैं लेकिन उनका बहुत महीन आबजर्वेशन है. प्रेम उनका मुहाविरा है और इसी मुहाविरे के इर्द गिर्द एक स्त्री के जीवन की विडंबनायें हैं, स्मृतियाँ और खुशियां. असुविधा पर उनका स्वागत. (1) ईश्वर कितना होता है कितना नहीं होता पर क्यों अच्छा लगता है, घर में इबादत की एक जगह होना बातें पूरी हो तब भी, बातें नहीं हों तब भी रहनी चाहिए हाशिये की जगहें भी अपने लिए सटीक शब्द अक्सर पास नहीं होते इसलिए लिखते -लिखने छोड़ देना चाहिए, कुछ जगहें खाली नींद ,ख्वाब और हक़ीक़त एक सीधी रेखा में रहते हैं छूट जाती हैं नींदे, ख्वाबों को पाने में चलना, चलते रहना और कहीं नहीं पहुंचना शायद मंजिलों से ज्यादा सकून होता है पहचानी बस्तियों में लौट जाने में कु