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मेरी हथेलियों में नहीं हैं प्रेम की कविताएं - प्रतिभा कटियार

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कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मित्रता की प्रगाढ़ता का अनुभव करने के लिए बार बार मिलने की दरकार नहीं होती. प्रतिभा से दोस्ती जब तुरंता बहस वाले फेसबुकिया नहीं अपेक्षाकृत दीर्घजीवी ब्लाग के जमाने की है...फिर वह हमारे अनुरोध पर "कविता समय" में आईं और पहली रु ब रु मुलाकात हुई. कविता की तरह ही जीवन में सहज और मस्त प्रतिभा का आज जन्मदिन है. मैसेज बाक्स में बधाई की औपचारिकता की जगह उनकी यह कविता जो उन्होंने काफ़ी दिनों पहले भेजी थी. हज़ार साल जियो प्रतिभा और ऐसे ही जियो.  मुझे माफ करना प्रिय इस बार बसंत के मौसम में   मेरी हथेलियों में नहीं हैं   प्रेम की कविताएं बसंत के सुंदर कोमल मौसम में मेरी आंखों में उग आये हैं पत्थर के कुछ ख्वाब ख्वाब जिनसे हर वक्त रिसता है लहू और जो झकझोरते हैं   उदास मौसमों को बेतरह ख्वाब जो चिल्लाकर कहते हैं कि   बसंत का आना नहीं है   सरसों का खिल जाना भर नहीं है बसंत का आना   राग बहार की लहरियों में डूब जाना कि जरूरी है   किसी के जीवन में बसंत बनकर   खिलने का माद्दा होना मुझे माफ करना प्रिय कि कानों में नह

असुविधा विशेष - लाल्टू की ताज़ा कविताएँ

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लाल्टू हमारे समय के महत्त्वपूर्ण और प्रतिबद्ध कवि हैं. आज "असुविधा विशेष" में उनकी कुछ ताज़ा कविताएँ. तरक्की कितनी तरक्की कर ली। इतनी कि लिखना चाह कर भी रुकता है मन। लैंग्वेज़ इनपुट ठीक है ,   यूनिकोड कैरेक्टर्स हैं ,   प्यार पर्दे पर बरसने को है ,   पर क्या करें उन ज़ालिमों का जो खुद को ज़ुल्मों के तड़पाए मानकर तांडव नाच रहे हैं ; मन कहता है लिखो प्यार और फ़ोन आता है कि चलो इकट्ठे होना है जंग के खिलाफ आवाज़ उठानी है क्या करें कितनी बार कितनी विरोध सभाओं में जाएँ कि जंगखोर धरती की आह सुन लें कहना है खुद से कि हुई है तरक्की प्यार को रोक नहीं सकी है नफ़रत की आग वो   रहता अपनी जंगें लड़ें हम अपनी जंगें लड़ेंगे हुई है तरक्की उनकी अपनी और हमारी अपनी सड़क पर होंगे तो गीत गाएँगे घर दफ्तर में लैंग्वेज़ इनपुट ठीक है ,   यूनिकोड कैरेक्टर्स हैं ,   प्यार पर्दे पर बरसता रहेगा। कावेरी तुम कहाँ ( अब मान लो कि उन तीन सौ में मैं हूँ ऐमस्टर्डम से मेलबोर्न की उड़ान पर बस छः घंटे और कि पहुँच कर आराम करूँ और कल पर्चा पढ़ने की तैयारी करूँ

फ़लस्तीन : कुछ कविताएँ

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फ़लस्तीन....कितने ही बरसों से इंसानी रूह की देह से बहता लहू. इंसानियत जहाँ इस क़दर शर्मसार हुई कि उसके आँसू सूख गए...ये कविताएँ यों ही यहाँ वहाँ से इकट्ठा कर ली हैं. जिनके अनुवादक का नाम नहीं मिला उन्हें ऐसे ही दे रहा हूँ अनुवादकों से क्षमा याचना के साथ... तस्वीर यहाँ से साभार  फलस्तीनी बच्चे के लिए लोरी   ---- मत रो बच्चे रो रो के अभी तेरी अम्मा की आँख लगी है मत रो बच्चे कुछ ही पहले तेरे अब्बा ने अपने गम से रुखसत ली है मत रो बच्चे तेरा भाई अपने ख्वाब की तितली पीछे दूर कहीं परदेस गया है मत रो बच्चे तेरी बाजी का डोला पराये देस गया है मुर्दा सूरज नहला के गए है चंद्रमा दफना के गए है मत रो बच्चे अम्मी , अब्बा , बाजी , भाई चाँद और सूरज तू गर रोयेगा तो ये सब और भी तुझे रुलायेंगे तू मुस्कयेगा तो शायद सारे एक दिन भेस तुझ से खेलने लौट आयेंगे * फैज़ अहमद फैज़ मैं वहाँ से आया हूँ मैं वहाँ से आया हूँ और मेरे पास स्मृतियाँ हैं , मैं औरों की तरह नश्वर हूँ और मेरे पास माँ है , और है एक घर अनेक खिडकियोंवाला , मेरे पास भाई ,  बंधु हैं और एक कारागार भी ह