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रजनीश साहिल की ताज़ा कविताएँ

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पेशे से पत्रकार और फितरत से कलाकार रजनीश भाई ने ये कविताएँ पढने के लिए भेजी थीं. हमारे अनुरोध को मानते हुए उन्होंने इन्हें असुविधा पर लगाने की अनुमति दी. इन्हें पढ़ते हुए आप एक तरफ इन बदले और मुश्किल हालात में एक युवा एक्टिविस्ट की तड़प से रु ब रु होंगे  तो दूसरी तरफ कैरियरिस्ट वरिष्ठों की अवसरवादिता से भी...स्वागत रजनीश का असुविधा पर. सोशल मीडिया : अहा-अहो! बड़े पत्रकार ने कुछ लिखा अहा-अहा! अहो-अहो! बड़े संपादक ने कुछ लिखा अहा-अहा! अहो-अहो! नामी-पुरस्कृत कवि-लेखक ने कुछ लिखा अहा-अहा! अहो-अहो! बड़े विचारक ने कुछ लिखा अहा-अहा! अहो-अहो! बड़े अभिनेता ने कुछ लिखा अहा-अहा! अहो-अहो! बड़े-बड़े ने कुछ लिखा अहा-अहा! अहो-अहो! हे श्रेष्ठिजन! आप गरियाते हैं इसे-उसे नाहक ही कोसते हैं लल्लो-चप्पो को नाहक ही बताते हैं स्तुतियों को दोयम दर्जे का नाहक ही बने फिरते हैं तनी रीढ़ वाले नाहक ही बैठे हैं भ्रम पाले स्वतंत्र समझ का नाहक ही ढोते हैं मस्तिष्क का बोझा नाहक ही वे लिखते हैं ‘गू’ दीवारें लीप देते हैं करते हुए आप अहा-अहा! अहो-अहो! -- अपदस्थ कि

कुमार विकल की कविताओं पर शिरीष कुमार मौर्य

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कविता की सजग आँखों में अब भी एक शिकायत भरी प्रतीक्षा है शिरीष कुमार मौर्य ---------------------------------------------------------------------------------------------------------   जब मैंने अपना पहला कविता संकलन तैयार किया तो जिन कवियों को उसे समर्पित किया, विकल उनमें से थे. एक असुविधाजनक कवि जो जितना बाहर जूझता है उतना ही भीतर भी. वामपंथ के तीनों शिविरों में भटककर उदास लेकिन संकल्पबद्ध लौटने वाला कवि, दुःख पर एक कबूतर की तरह झपटने वाला कवि, प्यार करने वाला कवि, प्यार किये जाने वाला कवि. जब हमने पढ़ना शुरू किया तो उनकी किताबें अप्राप्य होना शुरू हो गयीं थीं. कुछ यहाँ वहाँ से मिलीं फिर सम्पूर्ण मिल गया आधार प्रकाशन से छपा सो हममें से अधिकाँश ने उन्हें वहां ही पढ़ा. हिंदी की सांस्थानिक आलोचनाओं के लिए उन्हें ढूंढना तो उनके जीवनकाल में भी मुश्किल रहा होगा. खैर, यहाँ अपने लेख में शिरीष ने उस कठिन बीहड़ में अपने पैर रखे हैं और विकल के कविता संसार का दरवाज़ा आप सबके लिए खोला है. -----------------------------------------------------------------------------------------------------