बसंत जेटली की कहानी
बसंत जी की यह कहानी काफी दिनों से मेरे पास थी. इसे पढ़ते हुए मुझे परसाई याद तो आये लेकिन यह भी लगा की उस शैली में लिखना इतना आसान भी नहीं. शायद उस दर्जे की प्रतिबद्धता अर्जित करना भी उतना आसान नहीं. शायद वक़्त भी वैसा नहीं. इस कहानी में जो 'इंकलाबी' चरित्र आये हैं, दरअसल वे और चाहे जो हों कम्युनिस्ट तो नहीं. वे रातोरात दुनिया बदल देने के सपने देखने वाले मध्यवर्गीय चरित्र हैं जो और कुछ भी कर लें दुनिया नहीं बदल सकते...खैर असल मानी तो आपकी प्रतिक्रिया के होंगे . इन्क़लाब वे संख्या में चार थे. उनमे से तीन के कपडे बेहद धूसर और मामूली थे.पैरों में घिसी हुई चप्पलें थीं. एक के सिर पर मओनुमा एक टोपी भी थी. वह हाव – भाव से उनका नेता सा लग रहा था. चौथे के कपडे कुछ सलीकेदार तथा साफ़-सुथरे थे. उसके पैरों में जूते थे और लगता था कि कुछ दिन पहले ही उन पर पौलिश की गयी थी. यों देखने में चारों ही परेशान लग रहे थे. उन सब के चेहरों पर चिंता