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मई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नीलेश रघुवंशी की कवितायें

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नीलेश रघुवंशी की कविताएँ समंदर के बीच किसी पोत पर बैठकर बनाए गए रेखाचित्रों सी हैं, तूफ़ान के बीच से बयान तूफ़ान की कहानी सी और गहरे अँधेरे के बीच से रौशनी की तरह बिखरती आवाज़ों सी. जीवन के  गहरे और त्रासद अनुभवों के बीच भी नीलेश उम्मीद और उल्लास के स्वर ढूंढ लेती हैं. उनकी कविताएँ एक तरफ गहन अनुभूति की कविताएँ हैं तो दूसरी तरफ जीवन की कुरूपता के ख़िलाफ़ प्रतिबद्धता की भी. स्त्री विमर्श के तुमुल कोलाहल में मुझे ये कविताएँ एक स्त्री की नज़र से जीवन के विविध पक्षों को सहज द्रष्टव्य के उस पार जाकर देखने की बेचैन कोशिश लगती हैं. हमारे आग्रह पर उन्होंने ये कविताएँ 'असुविधा' के लिए उपलब्ध कराईं जिसके लिए हम आभारी हैं. साथ ही हाल में ही उन्हें मिले 'स्पंदन कृति सम्मान' के लिए हमारी बधाईयाँ भी.              चक्रः ग्यारह कविताएँ       भूख का चक्र सबके हिस्से मजदूरी भी नहीं अब शरीर में ताकत नहीं तो मजदूरी कैसे ? छोटे नोट और सिक्के हैं चलन से बाहर पाँच सौ के नोट पर छपी पोपले मुँह वाली तस्वीर भी कई दिन से भूखी है !     प्यार का चक्र उ

असुविधा टाकीज़ : लव इन द टाइम आफ कॉलरा

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कॉलरा की चपेट में प्रेम विजय शर्मा किसी साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना एक बहुत बड़ा जोखिम है। किसी विश्वप्रसिद्ध साहित्यिक कृति पर फ़िल्म बनाना और बड़ा जोखिम है। कोलम्बियन नोबेल पुरस्कृत लेखक गैब्रियल गार्षा मार्केस इस बात से परिचित थे कि अक्सर फ़िल्म बनते ही साहित्यिक कृति का सत्यानाश हो जाता है। इसी कारण उन्होंने काफ़ी समय तक निश्चय किया हुआ था कि वे अपनी कृतियों पर फ़िल्म बनाने का अधिकार भूल कर भी किसी को नहीं देंगे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘ वन हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’ पर फ़िल्म बनाने के लिए उन्हें एक बहुत बड़ी रकम की पेशकश की गई। काफ़ी समय तक वे टस-से-मस नहीं हुए, अपनी जिद पर अड़े रहे। उनका एक और प्रसिद्ध उपन्यास है ‘ लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’। इसके फ़िल्मीकरण के लिए निर्देशक उनके चक्कर लगा रहे थे। वे इसके लिए भी सहमत न थे।  इस विश्व प्रसिद्ध उपन्यास में फ़रमीना डाज़ा और फ़्लोरेंटीनो अरीज़ा का प्रेम तब प्रारंभ हुआ था जब वह १३ साल की और वह १८ साल का था। मगर जैसा कि अक्सर होता है लड़की के नवढ़नाढ्य पिता को लड़के का स्टेट्स अपने बराबर का नहीं लगा। उसने अपनी बेटी क

रामजी यादव की कविताएँ

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रामजी यादव को हम उनकी कहानियों के लिए जानते हैं. गाँव-गिरांव की संघर्षशील जन के प्रतिरोध की सशक्त कहानियों के लिए. लेकिन जब उन्होंने थोड़े दिन पहले ये कवितायें भेजीं तो यह मेरे लिए थोड़ा विस्मित होने का सबब था. इनका टोन बिलकुल अलग है. लेकिन इस अलग कहन की पालिटिक्स वही है. आखिर प्रेम भी जीवन दृष्टि से विहीन तो नहीं होता न ? प्रेम की राजनीतियाँ होती हैं. वहाँ भी आप एक आक्रामक पितृसत्तात्मक पुरुष हो सकते हैं जहाँ प्रेम भी रणभूमि में बदल जाता है और विजय से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं होता. इन प्रेम कविताओं की भी एक राजनीति है. जो एक राग है इसमें कभी धीमा और कभी ऊंचा बजता हुआ , वह रणभेरी नहीं है बल्कि एक सम पर होने की कोशिश है....   एक स्त्री के समक्ष एकालाप                                                    एक अगर तुम चांदनी की किरण होतीं तो सारी बेरौनक आंखों को तुम्हें दे देता अगर तुम बारिश की बूंद होतीं तो दे देता तुम्हें जंगल को कि वे हरे भरे होकर निखर आयें   लेकिन हे प्रेम की चिरकुमारी तुम तो समा गयी हो मुझमें मैं बनकर आईना देखता हूं तो झांकती हो साफ