दुष्यंत क्यों रक्तबीज हो गए हैं? - बसंत जेटली
पारम्परिक आख्यानों का कविता में प्रवेश और उनसे नए पर कुछ कहने का प्रयास हिंदी में कोई नई चीज़ नहीं है. मिथक हों या इतिहास, उनके मूल में उस काल की सामाजिक-राजनीतिक अवस्थितियों से निर्मित परिवेश और आदर्श रहते ही हैं. ऐसे में कई बार उनमें भटक जाने, उनकी आभा से दृष्टि के चुंधिया जाने और इस प्रभाव में किसी पुरोगामी कुपथ पर भटक जाने के खतरे भी होते हैं. बसंत जेटली की यह कविता अपने कथ्य के लिए एक प्राचीन आख्यान का सहारा लेती है. शकुन्तला-दुष्यंत का आख्यान. लेकिन इस अति-प्रसिद्ध आख्यान की अँधेरी कंदराओं में भटकने की जगह वह इसके द्वारा स्थापित सहजबोध को प्रश्नांकित करने का ज़रूरी काम करती है और इस रूप में हमारे समय पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करती है. पार्श्व में चलते अभिनव शाकुंतलम की गूँज से निर्मित इसकी भाषा का प्रवाह कविता में एक विशिष्ट प्रवाह देता है. बसंत जी के प्रति आभार सहित यह कविता .. शकुन्तला के प्रश्न विश्वामित्र के तपभंग को प्रेषित अप्सरा माता के गर्भ से अनचाहे जन्मी थी मै | इसमे कसूर न तुम्हारा था न मेरा, यह अलग बात है कि आज तक बूझ नहीं पाई मै अनेक ऋषियों का