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दिसंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तोतापन, काव्यधर्मिता और रघुवीर सहाय

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रघुबीर सहाय की काव्य-धर्मिता ·                      उमेश चौहान रघुबीर जी आज जीवित होते तो हिन्दी के तमाम शीर्षस्थ कवियों के हमउम्र होते और श्रेष्ठतम समकालीन कवि होते। मृत्यु के उपरांत भी कविता की समकालीनता की दृष्टि से उन्हें आज का श्रेष्ठतम कवि माना जा सकता है। समय-समय पर तमाम आलोचकों ने इस बारे में अपने विचार रखे हैं कि रघुबीर सहाय जी ने कवि-कर्म को किस रूप में देखा, कविता लिखने के बारे में उनकी धारणा या मान्यता क्या थी, उन्होंने अपनी धारणा के अनुरूप गढ़े इस कवि-धर्म को किस प्रकार से साधा और काव्य-धर्मिता से जुड़ी अपनी पंक्तियों के माध्यम से वे कैसे कवियों को भी राह दिखाने वाले एक महत्वपूर्ण कवि बन गए। रघुबीर जी एक जाने-माने पत्रकार व संपादक भी थे अतः अपनी कविताओं में उन्होंने एक पत्रकार की आदत के मुताबिक कविता के बैक स्टेज की भी खूब पड़ताल की और उसकी विसंगतियों तथा दुष्प्रवृत्तियों को उजागर करते हुए उन्होंने काव्य-रचना के उजले संसार में प्रवेश करने के अनेकों द्वार खोले हैं। यहाँ एक नितान्त पाठकीय दृष्टिकोण के साथ रघुबीर जी की काव्य-धर्मिता के बारे में कुछ बातों पर पुन

नींव,दीवार,छत थे पिता

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पितृशोक के इस दौर में अग्रज कवि निरंजन श्रोत्रिय ने संवेदना सन्देश के साथ यह कविता भी भेजी थी. आज असुविधा पर यह आप सबके लिए... पिता उन दिनों  पिता उन दिनों पिता जैसे नहीं हुआ करते थे रौब और ख़ौफ से रिक्त पिता बच्चे की तरह निश्चिन्त और खुश रहते हम मस्ती में चढ़ जाते कंधें पर उनके छूते निडरता से मूँछें उनकी उन्हीं की छड़ी से उन्हें पीटने का अभिनय करते चुपके से गुदगुदाकर पिता को खोल देते खिलखिलाहट की टोंटी नहा जाता घर नींव,दीवार,छत थे पिता घर थे पिता ! एक दिन अचानक लौटे पिता घर अजनबी और डरावना चेहरा लिये हम दुबक गये घर के कोनों में छड़ी उठाकर घूरने लगे शून्य में नींव,दीवार और छत डरने लगे घर लौटे पिता से डबडबाने लगा टेबल पर रखा चश्मा उनका चुप्पी उनकी सीलन बन बैठ गई दीवारों में उस दिन शहर और दुनिया में कुछ घटनाएं घटी थीं एक साथ एक नाबालिग लड़की के साथ हुआ बलात्कार दो बेटों ने बूढ़ी माँ के एवज में चुनी जायदाद सोमालिया में पैंतालीस लाख बच्चे भूख से मरने को थे और शकरू मियाँ का नौजवान बेटा घर ख़त छोड़ गया था !                                        

श्रद्धांजलि - महेश अनघ

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१४ सितम्बर १९४७ - ४ दिसंबर २०१२  हिंदी के जाने-माने नवगीतकार महेश अनघ नहीं रहे. कल उनके निधन की सूचना मिली तो क्या-क्या कुछ याद आ-आके रह गया. ग्वालियर के बिलकुल आरम्भिक दिनों में वह शास्त्रीनगर में मेरे पडोसी थे. उन दिनों लगभग हर शाम को उनसे मिलना होता था. कभी वह अपनी नातिन को खिलाते-खिलाते मेरे घर चले आते तो अक्सर मैं कोई नई कविता लिए उनके घर पहुंचता. वह बहुत धैर्य से सुनते और खासतौर पर भाषा और बिम्बों के स्तर पर बहुत क़ीमती सलाहें देते. लम्बे समय बाद मैंने कविता लिखनी शुरू की थी तो वह अनघ जी और ज़हीर कुरैशी साहब ही थे जिन्होंने न केवल हिम्मत बढ़ाई बल्कि लगातार लिखने और पत्रिकाओं में भेजने को प्रेरित किया. आज अगर थोड़ा बहुत लिख पाया हूँ तो यह इन बुजुर्गों के आशीष और डांट का ही प्रतिफल है. मैंने जब उन्हें अपनी पहली किताब दिखाई थी तो वह बहुत प्रसन्न हुए थे और वर्षों बाद किसी के पाँव छू कर मैंने आशीर्वाद लिया था. उनकी पत्नी श्रीमती प्रमिला जी भी साहित्य की मर्मग्य हैं. कभी-कभी उनके यहाँ डा राम प्रकाश अनुरागी, अतुल अजनबी, राजेश शर्मा , घनश्याम भारती और दूसरे मित्रों के साथ महफ़िल

पंजाबी कवि गुरप्रीत की कुछ कविताएँ

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असुविधा पर आप भाई जगजीत सिद्धू के मार्फ़त  पहले भी कुछ पंजाबी कवियों को पढ़ चुके हैं, इस बार पढ़िए वरिष्ठ कवि गुरप्रीत की कुछ कवितायें गुरप्रीत पंजाब के एक ऐसे कवि है जिनकी कवितायों के विषय भी उनकी भाषा की तरह सरल और जिन्दगी से जुड़े होते है .उनकी अब तक तीन किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं 'शब्दों की मर्ज़ी ", "अकारण " " सियाही घुली है ". बहुत गहरे अर्थ छोडती हुई गुरप्रीत की कवितायों में एक आम आदमी की रोजमर्रा जिन्दगी की बाते बहुत ही सरल और सादे ढंग से व्यक्त हैं ... जैसे कविता " बिका हुआ मकान और वह चिड़िया " कवि के बिके हुए मकान को खाली करते वक़्त उसकी और उसके घरवालो की मन की स्थिति को व्यक्त करती है                                                     जगजीत सिद्धू  गुरप्रीत की कविताएं पत्थर  एक दिन पूछता हूँ नदी किनारे पड़े पत्थर से बनना चाहोगे किसी कलाकार के हाथों एक कलाकृत फिर रखा जाएगा तुझे किसी आर्ट गैलरी में दूर दूर से आयेगे लोग तुझे देखने लिखे जाएँगे तेरे रंग रूप आकार पर लाखों