गाज़ा में सुबह - मृत्युंजय की ताज़ा कविता
गाज़ा में युद्धविराम हो गया है । पिछले कुछ दशकों में वहाँ इस युद्ध और विराम की इतनी (दुर ) घटनाएं हुई हैं कि अब न तो युद्ध से वह दहशत पैदा होती है न विराम से वह सुकून, बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि एक मुसलसल दहशत बनी ही रहती है। नोबेल शान्ति से सम्मानित विश्व-साम्राज्यवाद का नायक नागरिक इलाकों में ज़ारी हत्या की इस सबसे क्रूरतम कार्यवाही का स्वागत करता है तो हमारे देश सहित दुनिया भर के सत्ता-समाज की चुप्पी भी दरअसल इसका स्वागत ही है। ऐसे में शायद कविता वह अकेली जगह है जहाँ प्रतिरोध की संभावना बची है और हिंदी कविता में फैज़ से लेकर अब तक यह बात बार-बार सामने आई है। मृत्युंजय की यह कविता प्रतिरोध की उसी परंपरा की कड़ी के रूप में देखी जानी चाहिए। यह कविता गाज़ा की सुबहों में मौत के अँधेरे उतारती ताकतों की पहचान करने के क्रम में युद्ध की भयावहता ही नहीं शान्ति के समय में चलती युद्ध की तैयारियों के पीछे के पूरे खेल की भी निशानदेही करती है और साम्राज्यवाद के पंजों में क़ैद उम्मीदों के पक्ष में पूरी प्रतिबद्धता के साथ खडी होती है। (1