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गाज़ा में सुबह - मृत्युंजय की ताज़ा कविता

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गाज़ा में युद्धविराम हो गया है ।  पिछले कुछ दशकों में  वहाँ  इस युद्ध और विराम की इतनी (दुर ) घटनाएं हुई हैं कि  अब  न तो युद्ध से वह दहशत पैदा होती है न विराम से वह सुकून,  बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि एक मुसलसल दहशत बनी ही रहती है।  नोबेल शान्ति से सम्मानित विश्व-साम्राज्यवाद का नायक नागरिक इलाकों में ज़ारी हत्या की  इस   सबसे क्रूरतम कार्यवाही का स्वागत करता है तो   हमारे देश  सहित  दुनिया भर  के    सत्ता-समाज  की चुप्पी भी  दरअसल इसका स्वागत ही है।  ऐसे में शायद कविता वह अकेली जगह है जहाँ प्रतिरोध की संभावना बची है और हिंदी कविता में फैज़ से लेकर अब तक यह  बात    बार-बार सामने आई है। मृत्युंजय की  यह कविता प्रतिरोध की उसी परंपरा की कड़ी  के रूप  में देखी जानी चाहिए।  यह कविता गाज़ा की सुबहों में मौत के  अँधेरे उतारती   ताकतों की पहचान करने के क्रम में  युद्ध की भयावहता ही नहीं शान्ति के समय में चलती युद्ध की तैयारियों के पीछे के पूरे खेल की  भी  निशानदेही करती है और साम्राज्यवाद के पंजों में क़ैद उम्मीदों के पक्ष में पूरी प्रतिबद्धता के साथ खडी होती है।   (1

अमिय बिंदु की लम्बी कविता

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२२ जुलाई १९७९ को जौनपुर के एक गाँव में जन्में अमिय बिंदु की कविताएँ  कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं. ग्रामीण समाज के गहरे अन्तर्विरोध और सतत वंचना से उपजे दैन्य उनकी कविताओं का चेहरा ही नहीं उनकी आत्मा की भी निर्मिति करते हैं. यहाँ उनकी जो एक लम्बी कविता 'घूर' दी जा रही है, वह ग्रामीण समाज में कूड़ा रखने के स्थान के बहाने पूरे समाज की विडम्बनाओं की एक मार्मिक पड़ताल करती है.  घूर! - ( एक) जो मिट न सके , सभी का असर हूँ , अजन्मा न सही , अजर और अमर हूँ. समृद्धि का अतिरेक हूँ , मैं मुख्य धारा का व्यतिरेक हूँ. उच्छिष्टों , अयाचितों का पूल हूँ विकास के रथ से उड़ता हुआ धूल हूँ. निकल गया जो कारवां , पीछे उठा गुबार हूँ बाज़ार के निचले पायदान की बुहार हूँ. ऊसर , बंजर , बाँझ हुई धरती का पूत हूँ , आश्चर्य हूँ , नाजायज-सा हूँ इसलिए सबके लिए अछूत हूँ. खाने की जूठन , झाड़न दीवारों का चालन अनाजों का , धरती की खुरचन ही नहीं अयाचित , अवांछित जो रह गए अनुपयोगी तकनीकी दौड़ में जो रह गए हैं पीछे , उन सबका भी आगार हूँ. जिनसे मन ऊब ग