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हरिओम राजोरिया की कविताएँ

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हरिओम राजोरिया नब्बे के दशक के एक बेहद महत्वपूर्ण कवि हैं. अब तक उनकी एक कविता पुस्तिका "यह एक सच है (1993)' और दो कविता संकलन "हंसीघर (मेधा प्रकाशन, 1998)" और "खाली कोना (ज्ञानपीठ, 2007)" प्रकाशित हुए हैं.  हिन्दी कविता परिदृश्य में जिस 'लोक' की बात अक्सर होती है , हरिओम की कविताएँ उसका अतिक्रमण भी करती हैं और उसका एक ऐसा अदेखा दृश्य भी प्रस्तुत करती हैं , जो लोक के नाम पर निर्मित एक खास तरह की छवि को ध्वस्त करता है. उनके यहाँ कस्बाई तथा ग्रामीण संस्कृति अपने पूरे रंग में सामने आती है. यह कोई मोनोलिथ 'लोक' नहीं है. इसके कई संस्तर हैं...बेहद संश्लिष्ट और बहुरंगी ...जिनके रस्ते चलकर वह हर बार उस मनुष्य तक की मुश्किल यात्रा करते हैं जो उनकी कविता की सबसे बड़ी चिंता का केन्द्र भी है और उनकी रचना-प्रक्रिया का अविभाज्य हिस्सा भी. उनकी सक्रियता और हस्तक्षेप की निरंतर कोशिश ने उन्हें अब तक "विशिष्ट" होने से बचाए रखा है , जिसे मैं अलग से रेखांकित किये जाने   योग्य मानता हूँ. यहाँ उनकी कुछ छोटी और एक लंबी कविता...उनकी कुछ और

कुमार मुकुल की कवितायें

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परिचय  जन्म : १९६६ आरा , बिहार के संदेश थाने के तीर्थकौल गांव में। शिक्षा : एमए, राजनीति विज्ञान १९८९ में अमान वूमेन्स कालेज फुलवारी शरीफ पटना में अध्यापन से आरंभ कर १९९४ के बाद अबतक दर्जन भर पत्र-पत्रिकाओं अमर उजाला , पाटलिपुत्र टाइम्स , प्रभात खबर आदि में संवाददाता , उपसंपादक और संपादकीय प्रभारी व फीचर संपादक के रूप में कार्य। किताब : दो कविता संग्रहों का प्रकाशन।  देश की तमाम हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में कविता , कहानी , समीक्षा और आलेखों का नियमित प्रकाशन। कैंसर पर एक किताब शीघ्र प्रकाश्‍य। संपादन : 'संप्रति पथ' नामक साहित्यिक पत्रिका का दो सालों तक संपादन। वर्तमान में 'मनोवेद' त्रैमासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक। e-mail- kumarmukul07@gmail.com रावणरंगी हुसैन साहब पहले तो आपने देश छोडा फिर छोड दी दुनिया पर वे जो हनुमान का मुखौटा लगाए घूम रहे इस देश में वे रावणरंगी अमर हुए जा रहे या कि पत्थर हुए जा रहे राह के पत्थर ... रोडे बस... परसो की ही तो बात है वेलेंटाइन के नाम पर भोपाल में उन्हों ने दौडा मारा दो बहनों को अपने अपने राम की अराध

नवीन सागर - हमारी कृतघ्नतायें खत्म क्यूं नहीं होतीं!

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जन्म 1948 -  मृत्यु-2000 नवीन सागर का नाम अक्सर कवियों की सूची में शामिल नहीं किया जाता. दशकों के खेल से भी बाहर ही देखा है उन्हें. इंटरनेट और विज्ञापन के इस दौर में आपने भी पता नहीं यह नाम सुना भी होगा या नहीं. मैंने सबसे पहले को सात-आठ साल पहले अशोकनगर में एक शाम हरिओम राजोरिया भाई साहब के घर एक उदास रात में उनके ही मुंह से सुना था. उनके चेहरे पर पसरा दुःख आज भी मुझे याद है...आज भी वह उदासी बेधती है मुझे . आज जब उनका संकलन निकाला पढ़ने के लिए तो सुबह-सुबह  उस उदासी का एक कतरा मुझसे भी गुजर गया. फिर जब उसे फेसबुक पर पोस्ट किया तो कुछ बातें और निकलीं. ब्लॉग जगत में उन पर कम ही बातें हुई हैं तो मुझे लगा कुछ चीजें एक साथ रख देना बेहतर होगा. तो यहाँ उनकी कुछ कविताएँ उनके मरणोपरांत प्रकाशित काव्य संग्रह " हर घर से गायब" से और कुछ गिरिराज किराडू , राजकुमार केसवा नी और कविता कोष (कविता कोष का लिंक ऊपर नवीन सागर के नाम के साथ)  के सौजन्य से ...शायद असुविधा नाम को चरितार्थ इससे अधिक किसी पोस्ट ने न किया होगा! १- देना ! जिसने मेरा घर जलाया उसे इतना बड़ा घर देन