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लैटिन अमेरिका से तीन कवितायें

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  राबर्टो  सोसा का जन्म १९३० में होंडुरास के योरो शहर में हुआ. सोसा "प्रेजेंते" के संपादक, "होंडुरास जर्नलिस्ट युनियन" के अध्यक्ष और होंडुरास के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में साहित्य के प्रोफ़ेसर हैं. कैलिग्राम्स, वाल्स, द सी इनसाइड, द पूअर, ए ब्रीफ स्टडी आफ पोएट्री एंड इट्स क्रियेशन, अ वर्ल्ड फार आल डिवाइडेड और 'द कामन ग्रीफ' इनकी प्रमुख रचनाओं में से हैं. विभिन्न भाषाओं में अनूदित इनकी कवितायें लैटिन अमरीकी समय और समाज का ज़िंदा दस्तावेज़ हैं. यहाँ प्रस्तुत अनुवाद मार्टिन एस्पादा द्वारा संपादित कविता पुस्तक "पोएट्री लाइक ब्रेड" से साभार. साझा दुःख हम दुनिया भर की माँयें और बेटियाँ यहाँ करती हैं उनका इंतज़ार सुनो हमें. “ उन्हें ज़िंदा ले गए थे वे, हम उन्हें ज़िंदा वापस चाहती हैं ” गौर करो हम पर, गिरफ्तार और लापता बाप और बेटे और भाइयों के नाम पर हम सर उठाये हुए करती हैं उनका इंतज़ार एकसाथ यूं कि जैसे किसी घाव पर लगे हुए टाँके कोई नहीं बाँट सकता कोई नहीं अलगा सकता हमारे इस साझे दुःख को      स्मृति संख्या १

मलयालम से दो कवितायें

बेटे! तू कितना भाग्यवान (कैंसर से मरे एक बेटे की याद में माँ व परि-जनों के विलाप से संबन्धित कविता) राधाकृष्णन तषकरा (हिन्दी अनुवाद: यू . के . एस . चौहान) काश! तू मेरी बगल में होता, बस इसे ही याद कर सिसकता रहता हूँ हमेशा आज भी मैं आँसुओं की बरसात थमेगी नहीं कभी अब अवशेष सारे समय रोना ही लिखा है क्या? तू छोड़ कर चला गया, यह सत्य याद आने पर अनजाने ही पीड़ा से मुँह बा दूँगा तेरी स्मृति जीवन के अंतिम क्षणों तक इस भूमि पर अश्रु-बिन्दुओं के रूप में गिर-गिर कर बिखरती रहे। तेरी मुझे दी गई एकाकीपन की रातें निरन्तर पुनर्जीवित कर रहीं हैं स्वप्न तेरी पद-चाप, तेरी आवाज़ सुनते ही मैं नित्य ही चौंक कर, उठ कर बैठ जाता हूँ। तेरा बच्चे की तरह हठ करना छीन-झपट कर ले लेना मेरा भोजन मूर्ख का भेष धारण कर नाटक करते हुए तेरा मुझे व औरों को भी खिलखिलाकर हँसा देना। झटका दे, पटक कर गिरा देने पर लेटे-लेटे जब मैं धोखा देकर सोने का नाटक करता तब दर्द से कराहते हुए तेरा मुझे बस एक मन्द मुसकान से छका देना। तेरे दिमाग में फँसे उस कीड़े को बिना

चाँद पर कोई बूढ़ी औरत नहीं रहती!

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ग्वालियर में रहने वाले अमित उपमन्यु  से मेरी मुलाक़ात कविता समय -१ के दौरान हुई. ट्रेनिंग से इंजीनियर, साफ्ट बाल के राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी, संगीत में प्रशिक्षित और साहित्य के प्रतिबद्ध पाठक अमित इन सब के साथ राजनीति में भी सक्रिय हैं...इन दिनों वे कुछ फिल्मों के स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहे हैं. उनकी कविताओं से परिचय होना मेरे लिए उनके एक नए पहलू से रु ब रू होना था. समकालीन मुहाविरे में लिखी ये कवितायें अपनी अंतर्वस्तु में प्रगतिशील-यथार्थवादी धारा के व्यापक परिदृश्य का एक ज़रूरी हिस्सा लगती हैं. इनमें सबसे अलग लगने वाली बात की जगह सबके साथ लगने की बात ज़्यादा नज़र आती है. किसी विशिष्टता की जगह ये कवितायें एक आधुनिक युवा की आँखों से दुनिया को देखते हुए अपने समय, समाज से जद्दोजेहद की कवितायें हैं. असुविधा पर अमित का स्वागत....  निर्माण जहाँ से मैं आया हूँ वहाँ कोई नहीं समझेगा यह भाषा बेहतर है फिर से सो जाया जाए या खोजें कोई नया शहर कई बार सोते रहना भी एक खुशनसीबी है बंद पलकों के नीचे से कई जलजले गुज़र चुके होते हैं बिना तुम्हारे आंसू या पसीने से भीगे और

हरिया जाएगा मन का कोना अंतरा

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राकेश पाठक पेशे से पत्रकार हैं. नई दुनिया के ग्वालियर के संपादक. ज़ाहिर है कि इनसे परिचय तमाम कार्यक्रमों के दौरान मेल-मुलाकातों के दौरान ही हुआ था. मेधा प्रकाशन से प्रकाशित उनके संस्मरण "काली चिड़ियों के देश में" पढते हुए लगा कि इस पत्रकार के भीतर कहीं गहरे एक कवि बैठा है. फिर मिलने-जुलने के साथ-साथ उस कवि की कारगुजारियां भी सामने आईं.  राकेश पाठक की कवितायें एक परिपक्व प्रेमी और सहृदय पुरुष की कवितायें हैं जहां राजनीतिक रूप से सही होने पर उतना जोर नहीं जितना एक मनुष्य के रूप में ईमानदार और सहज बने रहने पर है. यहाँ प्रेम है, स्मृतियाँ हैं और मनुष्यता का एक  भरा-पूरा संसार. असुविधा पर आ रही उनकी ये कवितायें नेट पर छपी पहली कवितायें हैं. हम इसे अपनी एक और उपलब्धि के रूप में दर्ज कर रहे हैं. लौट  आना लौट आना इस बार भी जैसे  लौटती रही हो  अब तक लेकिन  लौट आना वसंत के पहले दिन से पहले लौट आना सावन की पहली बारिश में मिट्टी की सौंधी गंध से पहले पूस के महीने में जब आसमान से चांदी की तरह झरने वाली हो ओस ठीक उससे पहले  लौट  आना. जेठ में जब सूरज से बरसने लगे