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जनवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फ़िलहाल जम रहा है मेरा समय

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पेंटिंग यहाँ से  जमशेदपुर में रहने वाले युवा कवि प्रशांत श्रीवास्तव की कविताएँ आप पहले भी असुविधा पर पढ़ चुके हैं. प्रशांत उन कवियों में से हैं जिनकी कविताएँ अभी प्रिंट में उतनी नहीं आई हैं लेकिन ब्लॉग जगत के पाठक उनसे बखूबी परिचित हैं. प्रशांत की कविताएँ एक ऐसे युवा की कविताएँ हैं जो दुनिया को अपनी निगाह से देखते हुए बड़ी आसानी से अपने चारों ओर उपस्थित दृश्यों को कविता में दर्ज करता चलता है. यहाँ किसी तरह की जल्दबाजी, चमत्कृत कर देने का अतिरिक्त प्रयास या फिर बडबोलापन नहीं दिखाई देता. उनकी कविता की दुनिया बेहद मामूली चीजों के बहाने बड़े सवालों तक पहुँचने से बनती है. आप देखेंगे कि वह चादरों पर लिखते हुए उस बहुश्रुत मुहाविरे से टकराने के बहाने अपने समय की विडंबनाओं से टकराते हुए कितनी आसानी से लिख जाते हैं कि 'चादरें सिकुड़ने का हुनर जानती हैं'. प्रशांत का यह हुनर एक प्रतिभाशाली तथा संभावनाशील कवि के आगमन की सूचना देता है. चादरें चादरें   सिकुड़ने का हुनर जानती हैं वे हमारी महत्वकांक्षाओं के अनुपात में हो जाती हैं छोटी कुछ चादरें आजीवन छोटी ही रहती हैं मगर तब उ

धै ससुरी परगति....

अर्थ-अनर्थ ईश्वर ने अर्थशास्त्रियों को इसलिए बनाया कि मौसम विज्ञानियों की इज्जत बची  रहे. यह इससे बिल्कुल अलग बात है कि ईश्वर को भक्तों की इज्जत बचाए रखने के लिए बनाया गया था.फिर अर्थशास्त्रियों ने इस अनर्थ की इज्जत बचाने के लिए गढे अर्थ. इस नए शब्दकोष में सबसे पहले गढा गया एक शब्द प्रगति... कैम्ब्रिज से लौटा अर्थशास्त्री प्रसन्न मुद्रा में जब उवाचता है यह शब्द तो अपने ठिये पर रामवृक्ष की दुकान के असेम्बल्ड ब्लैक एंड व्हाईट टीवी के सामने बैठे बरन बरेठा सुरती की अंतिम ताल के साथ सुर साधते हुए कहते हैं – धै ससुरी परगति! किसी दूसरे चैनल से झक सफ़ेद कुर्ते पाजामे से झरता है एक दूसरा शब्द विकास... और ठीक उसी वक़्त होठों के कोरों में बजबजाती झाग के बीच उस झोपडी में भर जाता है एक शब्द सल्फास, जहाँ कुछ दिन पहले मेथी के साग के साथ बाजरे की आखिरी रोटी खा चैन की नींद सोये थे युवराज... शब्द ठहरे रहते हैं और पानी की तरह बदलती रहती है उनकी तासीर. एक उम्र गुजरती जाती है शब्दों के सहारे और शब्द तिनकों की तरह कुचले जाते रहते हैं. शब्दकोशों की कब्रगाह में हज़ार बरस सोय

कुमार अनुपम की लंबी कविता - विदेशिनी

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रवीन्द्रनाथ टैगोर की पेंटिंग - विदेशिनी   कुमार अनुपम हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि हैं. न केवल इसलिए कि उनके पास एक ऎसी कवि दृष्टि है जो समकालीन कविता के चालू मुहावरों से आगे जाती है बल्कि इसलिए कि इस कविता विरोधी समय में अपने लिए कोई सुरक्षित खोह चुनने की जगह वे लगातार प्रयोग करने वाले कवि हैं. एक ऎसी बेचैनी को जीने वाले कवि जो अपनी पूरी शिद्दत से कविताओं में आती है. पिछले दिनों प्रतिलिपि में प्रकाशित लंबी कविता हो या उससे पहले वसुधा में प्रकाशित लंबी कविता या फिर आज यहाँ प्रस्तुत कविता...आप देखेंगे कि वह लगातार एक टटके शिल्प के तलाश में हैं. बिम्ब उनकी कविता में सहजता से आकर जम जाते हैं...लदते नहीं. और इस सहजता का प्रभाव इतना मारक होता है कि पढ़ने वाला कहीं गहरे से हिल जाता है. कविता खत्म होने के बाद भी लगातार गूंजती रहती है. विदेशिनी र वीन्द्र नाथ टैगोर की रचना है. अनुपम ने उसी पृष्ठभूमि को लेकर आधुनिक समय की कविता रची है. एक ऎसी लंबी कविता जो न केवल प्रेम के कुछ अनुपम और सघन दृश्य खींचती है बल्कि उसके कहीं आगे जाकर हमारे समय की विसंगतियों को प्रश्नांकित करती है. इस

सिद्धेश्वर की नई किताब का स्वागत करें...

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मेरे अत्यंत प्रिय मित्र सिद्धेश्वर की नयी किताब आई है...पहला कविता संकलन "कर्मनाशा"...उसका लोकार्पण भी कविता समय के दौरान होना था लेकिन किन्हीं दिक्कतों के कारण वह नहीं आ पाए. किताब के साथ मेरे जुड़ाव का एक सबब यह भी कि इसका ब्लर्ब मैंने लिखा है...मेरा पहला ब्लर्ब...जयपुर से उन्हें पूरे कविता समय की ओर से बधाई. उनकी कुछ कविताएँ आप यहाँ पहले भी पढ चुके हैं. किताब अंतिका प्रकाशन से आयी है और यह प्रकाशक गौरीनाथ से 09868380797  से मंगाई  जा सकती है. ब्लर्ब  इस जटिल बाज़ार समय में कविता के घटते स्पेस और खुद कविता के भीतर इस जटिलता के शिल्पगत और भाषाई विशिष्टता में घटित होने के बहाने सादगी और साफगोई के स्पेस के लगातार संकुचित होते जाने के बीच सिद्धेश्वर सिंह की ये कविताएँ विशिष्टता के खिलाफ साधारणता के पक्ष में मज़बूती से खडी कविताएँ हैं. इस ‘अंधेरी रात की काली स्लेट पर लिखने के लिए वे ‘चन्द्रमा के चॉक’ की तलाश में नहीं, उनके लिए ‘मिट्टी ही काफी’ है. शब्दों से विराट प्रतिसंसार रचने के अपने महास्वप्न के बेकल प्रयास के बीच उनके कवि की जेनुइन चिंता है कि ‘भाषा के