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कुमार अम्बुज का नया संकलन - अमीरी रेखा

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हिन्दी के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज का नया कविता संकलन 'अमीरी रेखा' अभी हाल में ही 'राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली' से छपकर आ गया है. 'किवाड़', 'क्रूरता' और 'अतिक्रमण' जैसे कविता संकलनों और 'इच्छाएं' जैसे बिल्कुल अलग तरह के कहानी संकलन से हिन्दी में एक विशिष्ट स्थान बनाने वाले अम्बुज जी का नया संकलन उनकी सतत सक्रियता का पता देता है. 'असुविधा' की ओर से उन्हें हार्दिक बधाई के साथ प्रस्तुत हैं इस संकलन से कुछ कविताएँ.  किताब यहाँ से प्राप्त की जा सकती है. अमीरी रेखा मनुष्य होने की परंपरा है कि वह किसी कंधे पर सिर रख देता है और अपनी पीठ पर टिकने देता है कोई दूसरी पीठ ऐसा होता आया है, बावजूद इसके  कि कई चीजें इस बात को हमेशा कठिन बनाती रही हैं और कई बार आदमी होने की शुरुआत एक आधी-अधूरी दीवार हो जाने से, पतंगा, ग्वारपाठा  या एक पोखर बन जाने से भी होती है या जब सब रफ्तार में हों तब पीछे छूट जाना भी एक शुरुआत है बशर्ते मनुष्यता में तुम्हारा विश्वास बाकी रह गया हो नमस्कार,

एक देश है निरुदेश्य है जो अपने नागरिकों के सामने

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हल्द्वानी में रहने वाले अमित श्रीवास्तव की कविताएँ सबसे पहले अनुनाद में पढीं थीं. उनके पास अपने जीवनानुभव के साथ उनसे प्रश्नाकुल एक ऐसा कवि व्यक्तित्व है जो उनके पार देखने की कोशिश लगातार करता है. इस आकुलता भरी कोशिश में बिखराव भी हैं, उलझाव भी. लेकिन वह आकुलता इन सबसे टकराती हुई उनसे लगातार सार्थक कवि-कर्म कराती है. असुविधा में उन्हें पहली बार प्रस्तुत करते हुए यह उम्मीद करता हूँ कि आगे भी हमें उनकी कविताएँ नियमित तौर पर पढ़ने को मिलेंगी. एक........ है एक डॉक्टर है जो हफ्ते के एक दिन गुरुवार को संभवतः मुफ्त इलाज करता है गरीब का वो जो आश्वस्त है अपने ठीक होने को लेकर और मरीज है तीसरा कुछ नहीं क्योंकि कुछ हो भी नहीं सकता डॉक्टर अपनी डॉक्टरी भाषा और पढीस लिखावट मे कुछ फैक्ट्स मिस कर देता है डिस्चार्ज स्लिप से... शायद जानबूझ कर जो भयानक बदकिस्मतियों से ही पता चलते हैं बदकिस्मती मरीज की उसकी मौत पर तिस पर बदकिस्मती डॉक्टर की उसका पोस्ट मॉर्टम होने पर। एक देश है जो पाठ पढ़ाता है कम से कम पांच साल की रूरल प्रैक्टिस का उस समय मे भी जब पूरी दुनिया को एक गांव के श

कुफ़्र कुछ हुआ चाहिये उर्फ गिरिराज किराडू

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गिरिराज किराडू किसी परिचय के मोहताज नहीं. अब यारों का यार वगैरह कहूँ तो जानने वालों के लिए यह पुरानी खबर होगी और न जानने वालों को इससे क्या फर्क पड़ता है? हिन्दी के इस ‘बालीवुडी’ सभ्यता वाले संसार में अकसर आपके लिखे और आपके जिए से अधिक आपकी स्थापित इमेज से काम चलाया जाता है और पढ़ने की जहमत उठाये बिना तमगे थमा कर आलोचना का धर्म निभा लिया जाता है. ऐसे माहौल में उसे भी समय-कुसमय तमाम उपाधियां दी जाती रही हैं.  मुझे अकसर लगता है कि हिन्दी का समकालीन  आलोचक कुछ ज़्यादा ही काहिल है. जहाँ कविता में थोड़ा अंडरटोन, कलात्मक अभिव्यक्ति या फिर अपरिचित बिम्बों का सृजन दिखाई देता है उसे झट से खारिज करना शोर मचाती हर कविता को महान जनपक्षधर कविता कह दिए जाने जैसा ही चलन में है. कविता के भीतर प्रवेश, उसकी अंतर्ध्वनियों की पहचान और फिर उसकी व्यापक पक्षधरता की शिनाख्त का ज़रूरी काम करने से बचते रहने की परिणिति यह हुई है कि अब कविता से अधिक कवि पर बात होती है. इसके बरक्स मुझे यह ज़रूरी लगता है कि गिरिराज जैसे कवियों की एक अधिक गहरी पड़ताल की जाय. उसका संकलन तो ओवरड्यू है ही, साथ ही अपनी कव