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मैं एक सपना देखता हूँ

(कई दिनों से मन बेहद बेचैन था....जब सारी बेचैनी समेटने की कोशिश की तो यह सब प्रलाप दर्ज हुआ...पहला ही ड्राफ्ट आप सबसे शेयर करने को बेचैन हूँ और आपकी बेबाक राय का मुन्तजिर) मैं एक सपना देखता हूँ मैं एक सपना देखता हूँ रात के इस तीसरे पहर जब सपनों को सो जाने के आदेश दिए जा चुके हैं जब पहरेदारों ने कस दिए हैं मस्तिष्क के द्वार जब सारे सपनों के हकीक़त बन जाने की अंतिम घोषणा की जा चुकी है उन्माद और गुस्से की आखिरी खेप के नीलाम हो जाने की खुशी में बह रही है शराबें शराबों की ज़हरीली महक से बेपरवाह मैं एक सपना देखता हूँ.... मैं एक सपना देखता हूँ जिसमें बिल्कुल सचमुच के इंसान है खुशी, दुःख और गुस्से से भरे हुए जब होठों और मुसकराहट के बीच फंसा दिए गए हैं तमाम सौंदर्य प्रसाधनों के फच्चर मैं उन लहूलुहान होठों से झरते गीतों की रुपहली आवाज़ सुनता हूँ मैं देखता हूँ इस निस्सीम विस्तार के उस पार मैं देखता हूँ इस भव्य इमारत का झरता हुआ पलस्तर मैं रास्ते में गिरे हुए चेहरे देखता हूँ मैं देखता हूँ लहू के निशान, पसीने की गंध, आंसूओं के पनीले धब्बे मैं इस शव

लीना मल्होत्रा राव की कवितायें

.. संपर्क टूटा नही ...  वो सब बाते अनकही रह गई है जो मै तुमसे और तुम मुझसे कहना चाहती थी हम भूल गए थे जब आँखे बात करती है शब्द सहम कर खड़े रहते है रात की छलनी  से छन के निकले थे जो पल वे सब  मौन ही  थे उन भटकी हुई दिशाओ में तुम्हारे मुस्कराहटो से भरी नजरो ने जो चांदनी की चादर बिछाई थी अंजुरी भर भर पी लिए थे नेत्रों ने लग्न मन्त्र याद है मुझे अब भी मेरी सुबह जब खुशगवार होती है मै जानता हूँ ये बेवजह नही तुम अपनी जुदा राह पर मुझे याद कर रही हो -२- बस बची रहूंगी मै प्रेम में..  एक दिन जब मै चली जाऊंगी तो घर के किन्ही कोनो से निकलूंगी फ़ालतू सामान में  बहुत समय से बंद पड़ी दराजो  से निकलूंगी किसी डायरी  में लिखे हिसाब से मेरे किसी पहने हुए कपडे में कभी अटकी पड़ी रहेगी मेरी खुशबू जिसे मेरे बच्चे पहन के सो जायेंगे जब मुझे  पास बुलाना चाहेंगे मै उनके सपनो में आऊंगी उन्हें सहलाने और उनके प्रश्नों का उत्तर देने मै बची रहूंगी शायद कुछ घटनाओं में लोगो की स्मृतियों में उनके जीवित रहने तक गाय की जुगाली में गिरती रहूंगी मै 

बसंत जेटली की कविताएँ

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इस बार असुविधा में वरिष्ठ रंगकर्मी बसंत जेटली की कुछ ताज़ा कविताएँ समय की साज़िश के बाद कुछ भी संज्ञा हो सकती है मेरे और उस नगर के संबंधों की जिसकी दीवारें आँखों में घुले सपनों से आ- आकर टकराती हैं, अपने आप को पहचानने से इनकार कर देता हूँ मैं. शहर से बेतरह नफरत हो जाती है | इस सब से अलग मेरा परिवेश हाथों में सूखे कनेर का गुच्छा लिए ढहते दुर्ग की प्राचीर पर धुंए के छल्ले बनाता रहता है | अन्दर कहीं गहरे दबा विद्रोही चेतना का कोई अंश और गहरे पैठ कर सिर्फ चर्चाएँ करता है, किसी अग्निपक्षी के पंख अपनी ही आग से झुलसते रहते हैं | रक्त भीगे हाथों से घोंघे और सीपियाँ बटोरता एक व्यक्ति, मन भर कर अपने आचरण का रस पी लेने के बाद, रंग-बिरंगे गुब्बारे फोड़ता हुआ किसी गहरे गर्त में कूद पड़ता है | घिर आता है चारों ओर बारूद के महीन कणों सा गहरा कुहासा और मैं शब्दों को अर्थ और अर्थों को शब्द देने की प्रक्रिया में भूल जाता हूँ अपना व्याकरण | सारे वर्तमान को कल्पित यज्ञ में होम कर रक्तबीज आशा की राख में नेवलों की तरह लोटने लगते हैं लोग

व्यवस्था बहुत असहाय है उसे अव्यवस्थित मत बनाइये

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हिमांशु पांड्या ने कल रात यह कविता मुझे तमाम संशयों के साथ पढ़ने के लिए भेजी थी, छापने की अनुमति आज सुबह मिली वह भी इस सवाल के साथ कि ' वैसे एक ड्राफ्ट को कितने दिन  रखना चाहिए कवि को ? :) लिखते ही छपा देना जल्दबाजी नहीं होगी ? '' .. ज़ाहिर तौर पर आलस्य और धैर्य कवियों के लिए एक ज़रूरी गुन है. लेकिन अच्छी चीज़ को बासी नहीं करना चाहिए (असल में इसे पढ़िए कि मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था:). यह कविता न केवल हमारे समय के कुछ बेहद ज़रूरी सवाल उठाती है बल्कि उसे इतने रोचक तरीके पेश करती है कि आप पूरी कविता एक बैठक में पढकर एक साथ रोमांचित और खिन्न होते हैं. बाक़ी सब आप खुद देखिये   हरा समंदर,गोपी चंदर  हमें पूरा का पूरा नहीं चाहिए जो मिल गया हम उससे संतुष्ट हैं. इस ज़माने में जब सबको इतना भी नहीं मिलता हमें इतना मिला,ये क्या कम है. इतना एक सापेक्षिक शब्द है. (कम तो कम नहीं होता, दो हज़ार ग्यारह में यह भ्रम भी दूर हुआ और द्वापर से दिल्ली विश्वविद्यालय में आ गया ' माफले षु कदाचनः ')   इतना एक सापेक्षिक शब्द है और आइन्स्टाइन और आर्कमिडीज को घुलाने मिलाने पर वह

मैं इतना ऊब गया कि मैंने मोबाईल उठाकर फोन लगाना शुरू कर दिया

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पिछले दिनों कलकत्ते से भाई प्रियंकर पालीवाल के संपादन में निकली पत्रिका अक्षर का प्रवेशांक मिला . कविता विरोधी समय में पूरी तरह कविता पर केंद्रित इस पत्रिका में प्रियंकर भाई ने न केवल हिन्दी तथा अन्य भाषाओं की हिन्दी में अनूदित उत्कृष्ट कविताएँ दी हैं बल्कि इसके इर्द-गिर्द अनेक उत्कृष्ट चीजों का एक ऐसा सम्मोहनकारी वितान रचा है कि आप उसे पढ़े बिना नहीं रह सकते. यहाँ पेश है इसी पत्रिका से हमारे समय के विशिष्ट कवि कुमार अम्बुज की डायरी का एक हिस्सा जो कविता जैसा ही सुख देता है. पत्रिका के लिए   सचिव, मित्र मंदिर, 5 कबीर रोड, कोलकाता - 700 026 से संपर्क किया जा सकता है जबकि जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता था कुमार अंबुज 2008 के दिनों में रहते हुए कुछ शब्दः कुछ नोट्स 1-  कई बार कोई तुम्हारी सहायता नहीं कर पाता। न स्मृति, न भविष्य की कल्पना और न ही खिड़की से दिखता दृश्य। न बारिश और न ही तारों भरी रात। न कविता, न कोई मनुष्य और न ही कामोद्दीपन। संगीत से तुम कुछ आशा करते हो लेकिन थोड़ी देर में वह भी व्यर्थ हो जाता है। शायद इसी स्थिति को सच्ची असहायता कहा जा सकता है