मैं उन्हीं सबमें हूं जो मेरे भीतर हैं
इस बार प्रस्तुत कर रहा हूँ रंगमंच से जुड़े कवि मृत्युन्जय प्रभाकर की कविताएँ. यह मेरा भी उनकी कविताओं से पहला ही परिचय था. यह देखना सुखद है कि इस युवा कवि का अनुभव संसार व्यापक है जिसके केन्द्र मे मनुष्य है. मृत्युन्जय के पास आपके अकेलेपन और आपके संघर्ष के क्षण, दोनो के लिए कविताएँ हैं. हालांकि उनकी भाषा को अभी और पकना है, शिल्प को अभी और बेहतर आकार लेना है लेकिन उनकी कविताएँ इस सम्भावना का स्पष्ट पता देती हैं. जल्द ही आप असुविधा पर उनकी कुछ और कविताएँ भी पढ़ेंगे. मैं हूं गेहूं की बालियों मटर के दानों चावल की बोरियों आलू के खेतों में बनमिर्ची के झुरमुटों आम के दरख्तों जामुन की टहनियों अमरूद के पेड़ों में गांव की गलियों खेतों की पगडंडियों सड़कों के किनारों शहरों की परिधि में रात की चांदनी सहर के धुंधलके शाम की सस्ती चाय दोपहर के सादे भोजन में साइबरस्पेस के किसी कोने ब्रह्मांड के किसी छोर मित्रों-परिचितों की याद आत्मीयों के प्यार में मैं उन्हीं सबमें हूं जो मेरे भीतर हैं। कितना कुछ कितना कुछ छूट जाता है कितना कुछ याद रह जाता है कितना क