अपना-अपना मानसून
बारिश देश भर में शुरू हो गयी है...हर किसी का इसे देखने का अपना नज़रिया है...असुविधा पर देखिये इसे कवि मनोज छाबड़ा की आँखों से...
मानसून की पहली बारिश है
मानसून की पहली बारिश है
और
पूरब से आये मज़दूर
लौट रहे हैं अपने गाँव
ये
उनके घर बह जाने के दिन हैं
पानी के साथ
उनके सपनों के बह जाने के दिन हैं
डरते-डरते लौटते हैं
मज़दूर अपने गाँव
वे तैयार हैं घर के बह जाने के लिए
वे
सहमे हैं --
ये उनके बच्चों के बह जाने के दिन न हों
न हों पत्नी, माँ-बाप के खो जाने के दिन
ट्रेन को देखते हैं
और
पटरी पर बहते
लोहे के पहियों को देखकर
कांप जाते है...
टिप्पणियाँ
मर्मस्पर्शी कविता..
फिर झोंपडा गरीब का बारिश में बह गया
Once a labourer women told me be4 20 years ago, which is still fresh in my mind, "Sahib, hamaare liye to garmian hi theek hai, aur koie bhi mausam hamaare liye theek nahin hai". Photo & Poem refreshed my memories. Life for poor is certainly hard in all seasons... and our Govt. is making poors as poorers... Good creation..
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और तहसीलदार ने सूखे की राहत बांट दी !
उनके घर बह जाने के दिन हैं
पानी के साथ
उनके सपनों के बह जाने के दिन हैं...
अशोक जी, आभार...
फिर झोंपडा गरीब का बारिश में बह गया
namaskaar !
behad sunder pakti , badhai
sadhuwad