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मजाज़ की वह अविस्मरणीय नज़्म

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ब्युकोवस्की की कविता का अनुवाद करने के बाद उसे यहां-वहां से पढ़ता रहा और इस दौरान मजाज़ बेतरह याद आते रहे…हमारा अपना बोहेमियन शायर…पेश है उनकी बेहद प्रसिद्ध नज़्म 'आवारा' और 'नौजवान ख़ातून से' आवारा शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने

चार्ल्स ब्युकोवस्की की एक कविता

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चार्ल्स ब्युकोवस्की भीड़ की महारत छल, हिंसा और व्यर्थता से इतना भरा होता है एक औसत आदमी कि पर्याप्त वह किसी सेना के एक दिन के लिये और सबसे काबिल हत्यारे हैं वे जो हत्या के ख़िलाफ़ प्रवचन देते हैं और सबसे अधिक घृणा करते हैं वे जो प्रेम की शिक्षायें देते है और अंततः सबसे अधिक जंगख़ोर हैं वे जो शांति के उपदेश देते हैं जो हरिकथा सुनाते हैं उन्हें ज़रूरत है भगवान की जो शांति के उपदेश देते हैं नहीं है उनके पास शांति जो प्रेम की शिक्षा देते हैं नहीं है उनके पास प्रेम उपदेशकों से सावधान रहो सावधान रहो विद्वानों से उनसे सावधान रहो जो हमेशा ही पढ़ते रहते हैं किताबें उनसे सावधान रहो जो ग़रीबी से घृणा करते हैं या कि जिन्हें गर्व है इस पर उनसे सावधान रहो जो प्रशंसा करने में नहीं लगाते देर कि बदले में चाहिये होती है उन्हें प्रशंसा सावधान रहो उनसे जो तुरत लगाते हैं सेंसर कि वे डरते हैं उससे जो वे नहीं जानते सावधान रहो उनसे जो हर वक़्त ढ़ूंढ़ते हैं भीड़ कि अकेले कुछ भी नहीं वे औसत आदमी से सावधान रहो, औसत औरत से और सावधान रहो उनके प्यार से

प्रमोद रामावत की ग़ज़लें

प्रमोद रामावत "प्रमोद" जन्म- 5 मई,1949 शिक्षा- विधि स्नातक सम्प्रति- कार्यकारी संपादक जय जैनम, उप सम्पादक अमृत मंथन प्रकाशन- मेरी अधूरी अमरनाथ यात्रा सम्पादन- अब सुबह नजदीक है [ ग़जल संग्रह ], सधी हुई चुप्पी [ काव्य संकलन ] संपर्क- नारायण निकुंज जे-100 , वार्ड नंबर-1 , श्रीनाथ नगर नीमच मध्यप्रदेश. सेल नंबर- 09424097155 1. सोने का पिंजरा बनवाकर, तुमने दाना डाला दोस्त | हम तो थे नादान पखेरू, अच्छा रिश्ता पाला दोस्त || हम तो कोरे कागज़ भर थे, अपना था बस दोष यही, तुमने पर अख़बार बनाकर , हमको खूब उछाला दोस्त | हमने इस साझेदारी में, अपना सब कुछ झोंक दिया तुम तो पक्के व्यापारी थे, कैसे पिटा दिवाला दोस्त | कल थे एक हमारे आँगन, किसने ये इन्साफ किया तुमको तो दिल्ली की गलियां, हमको देश निकाला दोस्त | सच्चाई पर चलते चलते, उस मंज़िल तक जा पहुंचे सब लोगों ने पत्थर मारे, तू भी एक उठा ला दोस्त | लोग वतन तक खा जाते है, इसका इसे यकीन नहीं मान जायेगा तू ले जाकर , दिल्ली इसे दिखा ला दोस्त | २. आँख से बाहर निकल