इसे बढ़ना था कितनी दिशाओं में मैत्री के लिये
इस बार प्रस्तुत हैं महेश वर्मा की कवितायें…अम्बिकापुर में रहने वाले महेश परस्पर पत्रिका से जुड़े रहे … उनकी कवितायें हिन्दी की प्रतिबद्ध परंपरा से गहरे जुड़ती हैं और एक बेहतर दुनिया के स्वप्न को हक़ीक़त में बदलने के लिये ज़रूरी हस्तक्षेप करती हैं...उन्हें अंतरजाल पर पहली बात पेश करते हुए असुविधा की ओर से शुभकामनाएं चढ़ आया है पानी देह के भीतर चढ़ता जा रहा है पानी बाहर आईने में रोज परख रहा हूं मैं अपनी त्वचा का आश्वासन, एक पुराने चेहरे के लिये मेरे पास है मुस्कान का समकालीन चेहरा. कल जो कमर तक था पानी आज चढ़ आया है सीने तक सुनाई देने लगी है कानों में हहराते पानी की आवाज़ दिखाई देते हैं फुनगी के थोड़े से पत्तो डूब जो चुकी है पगली झाड़ी. किसी पर्व की रात सिराए दीपक सी अब भी डगमग उतराती हो आत्मा इसी बढ़ते जल में! रहस्य कितने बल से धकेला जाये दरवाजा दाहिने हाथ से और उसके कोन से पल चढ़ाई जा सकेगी बाएँ हाथ से चिटखनी इसी संयोजन में छुपा हुआ है- मुश्किल से लग पाने वाली चिटखनी का रहस्य. इस चिटखनी के लगन से जो बंद होता दरवाजा उसके बाहर और भीतर सिर झुक