मैं कैसे उन्हें दीवाना कह दूं…
ये किन हाथों में पत्थर हैं? (अख़बार में छपी इस तस्वीर को देखकर) ये कौन से हाथ हैं पत्थरों में लिथड़े ये कैसे चेहरे हैं पथराये हुए ये कैसी आंखे हैं नीले पत्थर की कौन सी मंज़िल है आधी सदी से बदहवास चलते इन पत्थर पहने पावों की यह कौन सी जगह है किसकी है यह धरती किस देश का कौन सा हिस्सा किसकी सेना है और जनता किसकी कि दोनों ओर बस पत्थर ही पत्थर ये कौन अभागे लोग कि जिनके लिये दिल्ली का दिल भी पत्थर है… किसका ख़ून है यह पत्थरों पर जो बस अख़बारों के पहले पन्ने पर काला होकर जम जाता है किनकी लाशें हैं ये जिनसे होकर दिल्ली का रस्ता जाता है मैं किस रस्ते से इन तक पहुंचूं किस भाषा में इनसे पूछूं कैसा दुख यह जिसका मर्सिया आधी सदी से ज़ारी है यह कौन सा गुस्सा कौन सी ज़िद है जो ख़ुद अपनी जान पे भारी है मैं कैसे उन्हें दीवाना कह दूं… जिनकी आंखों का पानी जमकर सूख गया है जिनके होठों पर बोल नहीं बस एक पथरीला गुस्सा है जिनके हाथों का हुनर कसा है बस एक सुलगते पत्थर पर वह पत्थर जिसकी मंजिल भी बस पत्थर पहने सिर है एक मै कैसे उन्हें दीवाना