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कथा मोर,मणि और वनदेवी की

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अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार (एक) इस जंगल में एक मोर था आसमान से बादलों का संदेशा भी आ जाता तो ऐसे झूम के नाचता कि धरती के पेट में बल पड़ जाते अंखुआने लगते खेत पेड़ों की कोख से फूटने लगते बौर और नदियों के सीने में ऐसे उठती हिलोर कि दूसरे घाट पर जानवरों को देख मुस्कुरा कर लौट जाता शेर एक मणि थी यहां जब दिन भर की थकन के बाद दूर कहीं एकान्त में सुस्ता रहा होता सूरज तो ऐसे खिलकर जगमगाती वह कि रात-रात भर नाचती वनदेवी जान ही नहीं पाती कि कौन टांक गया उसके जूड़े में वनफूल एक धुन थी वहां थोड़े से शब्द और ढेर सारा मौन उन्हीं से लिखे तमाम गीत थे हमारे गीतों की ही तरह थोड़ा नमक था उनमें दुख का सुख का थोड़ा महुआ थोड़ी उम्मीदें थी- थोड़े सपने … उस मणि की उन्मुक्त रोशनी में जो गाते थे वे झिंगा-ला-ला नहीं था वह जीवन था उनका बहता अविकल तेज़ पेड़ से रिसती ताड़ी की तरह … इतिहास की कोख से उपजी विपदायें थीं और उन्हें काटने के कुछ आदिम हथिया

अधूरी प्रेमकथायें

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(पिछली कविता पर जो प्रतिक्रियायें आईं उनमें एक 'शाक' का तत्व था…एक नियमित पाठिका ने मेल किया…'अशोक जी, इतना सच नहीं कहते भाई…कमेन्ट नहीं दे पाऊंगी'…ख़ैर मुझे लिखते समय भी शाक लगा ही थी तो यह अनपेक्षित नहीं था। इसी बीच भोपाल के भाई रितेश से बात के दौरान चंद्रभूषण जी की कविता अधूरी प्रेमकथायें का ज़िक्र आया तो मन में एकदम से उसे पोस्ट करने का ख़्याल आया। कारण तो आप पढ़कर समझ ही जायेंगे। कविता उनके संकलन इतनी रात गये से साभार ) जानते नहीं गृहस्थजन कि अधूरापन क्या होता है इतने मगन होते हैं वे अपने पूरेपन में कि हर प्रेमकथा उन्हें अधूरी ही लगती है प्रेमी ही जानते हैं कि पूरापन क्या होता है वे किसी को अधूरा नहीं कहते, गृहस्थ को भी नहीं अगर आप सदगृहस्थ हैं, तो क्षमा करें प्रेमी हैं तो भी क्षमा करें मैं अदूरेपन का गायक हूं और ले जाना चाहता हूं आपको अधूरेपन की ख़तरनाक दुनिया में दोस्तों, अधूरी प्रेमकथायें होती हैं बादलों की शक्ल की कोई चीज़ यानि उन बादलों की शक्ल की नहीं जो बरस कर निकल चुके होते हैं और न उनकी, जो किसी वजह से बरस