गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें
( आमतौर पर मान लिया जाता है कि मुक्त छंद लिखने वाले छंद से दूर ही रहते हैं। मेरा मानना है कि हम सबने किशोरावस्था और तरुणाई के पहले सालों में गीत, नज़्म,ग़ज़ल, दोहे लिखे होते हैं…बस एक समय के बाद वह फ़ार्म अपर्याप्त लगने लगता है। आज पढ़िये उसी दौर की एक नज़्मनुमा चीज़! डायरी में वर्ष 1996 का है) मिलो तो ऐसे मिलो मिलो तो ऐसे मिलो कि कल और आज के बीच वो एक रात जो होती है वो भी न हो न कल की फिक्र न कांधे पे बोझ माज़ी का बस एक लम्हा कि जिसमें हम ऐसे मिलें कि जैसे ज़मीनों आसमान मिले और एक भरम जो होता है वो भी न हो मिले निगाह तो सौ चिराग रौशन हों और हथेलियों की गर्म आंच तले पिघल जायें शिकायतों के सर्द पहाड़ गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें और एक सांस जु़दा जो होती है वो भी न हो मिलो तो यूं ही मिलो मेरे दोस्त वरना रहने दो!