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गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें

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( आमतौर पर मान लिया जाता है कि मुक्त छंद लिखने वाले छंद से दूर ही रहते हैं। मेरा मानना है कि हम सबने किशोरावस्था और तरुणाई के पहले सालों में गीत, नज़्म,ग़ज़ल, दोहे लिखे होते हैं…बस एक समय के बाद वह फ़ार्म अपर्याप्त लगने लगता है। आज पढ़िये उसी दौर की एक नज़्मनुमा चीज़! डायरी में वर्ष 1996 का है) मिलो तो ऐसे मिलो मिलो तो ऐसे मिलो कि कल और आज के बीच वो एक रात जो होती है वो भी न हो न कल की फिक्र न कांधे पे बोझ माज़ी का बस एक लम्हा कि जिसमें हम ऐसे मिलें कि जैसे ज़मीनों आसमान मिले और एक भरम जो होता है वो भी न हो मिले निगाह तो सौ चिराग रौशन हों और हथेलियों की गर्म आंच तले पिघल जायें शिकायतों के सर्द पहाड़ गले मिलें तो साथ धड़कने भी मिलें और एक सांस जु़दा जो होती है वो भी न हो मिलो तो यूं ही मिलो मेरे दोस्त वरना रहने दो!

तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश

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तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश गुज़र जाना चाहता हूं सारे  देश- देशान्तरों से पार कर लेना चाहता हूं नदियां, पहाड़ और महासागर सभी जान लेना चाहता हूं शब्दों के सारे आयाम ध्वनियों की सारी आवृतियां दृश्य के सारे चमत्कार अदृश्य के सारे रहस्य. तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश इस तरह चाहता हूं तुम्हारा साथ जैसे वीणा के साथ उंगलियां प्रवीण जैसे शब्द के साथ संदर्भ जैसे गीत के साथ स्वर जैसे रूदन के साथ अश्रु जैसे गहन अंधकार के साथ उम्मीद और जैसे हर हार के साथ मज़बूत होती ज़िद बस महसूसते हुए तुम्हारा साथ साझा करता तुम्हारी आंखों से स्वप्न पैरो से मिलाता पदचाप और साथ साथ गाता हुआ मुक्तिगान तोड़ देना चाहता हूं सारे बन्ध तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश ख़ुद से शुरू करना चाहता हूं संघर्षों का सिलसिला और जीत लेना चाहता हूं ख़ुद को तुम्हारे लिये।