गुस्से में लिखी एक कविता
इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश दरवाज़े की कोई भी खटखट हो सकती है उनकी ज़रूरी नही कि रात के अंधेरों ही में हो उनकी आमद किसी भी वक़्त हमारी ज़िंदगी में उथल-पुथल मचा सकती है उन बूटों की आवाज़ इन दिनों संविधान की तमाम धारायें संवेदनशील हैं कविताओं के बाहर बोलने पर मंदिरों की तरह है देश की सुरक्षा इन दिनों ज़रूरी नहीं कि हथियार हों आपके हाथों में उनकी बन्दूक़ों के सामने अप्रस्तुत होना पर्याप्त है पर्याप्त हैं अख़बार की कुछ कतरनें फुटपाथ से ख़रीदीं कुछ किताबें लिख दिया गया कोई सपना- गा दिया गया कोई गीत पूछा गया एक असहज प्रश्न यहां तक कि किसी दोस्त की लाश पर गिरा एक आंसू भी इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश जितना अभी है कभी ज़रूरी नहीं था विकास जितने अभी हैं कभी उतने भयावह नहीं थे जंगल जितने अभी हैं कभी इतने दुर्गम नहीं थे पहाड़ कभी इतना ज़रूरी नहीं था गिरिजनों का कायाकल्प इन दिनों देशभक्ति का अर्थ चुप्पी है और सेल्समैनी मुस्कराहट कुछ भी असंगत नहीं चाहते वे इस आपातकाल में!