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गुस्से में लिखी एक कविता

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इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश दरवाज़े की कोई भी खटखट हो सकती है उनकी ज़रूरी नही कि रात के अंधेरों ही में हो उनकी आमद किसी भी वक़्त हमारी ज़िंदगी में उथल-पुथल मचा सकती है उन बूटों की आवाज़ इन दिनों संविधान की तमाम धारायें संवेदनशील हैं कविताओं के बाहर बोलने पर मंदिरों की तरह है देश की सुरक्षा इन दिनों ज़रूरी नहीं कि हथियार हों आपके हाथों में उनकी बन्दूक़ों के सामने अप्रस्तुत होना पर्याप्त है पर्याप्त हैं अख़बार की कुछ कतरनें फुटपाथ से ख़रीदीं कुछ किताबें लिख दिया गया कोई सपना- गा दिया गया कोई गीत पूछा गया एक असहज प्रश्न यहां तक कि किसी दोस्त की लाश पर गिरा एक आंसू भी इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश जितना अभी है कभी ज़रूरी नहीं था विकास जितने अभी हैं कभी उतने भयावह नहीं थे जंगल जितने अभी हैं कभी इतने दुर्गम नहीं थे पहाड़ कभी इतना ज़रूरी नहीं था गिरिजनों का कायाकल्प इन दिनों देशभक्ति का अर्थ चुप्पी है और सेल्समैनी मुस्कराहट कुछ भी असंगत नहीं चाहते वे इस आपातकाल में!

उम्र से अधिक दिखना औक़ात से अधिक दिखना होता है क्या?

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( गीत चतुर्वेदी अपनी पीढ़ी के मेरे सबसे प्रिय कवियों में है। उसकी कवितायें बोलती हैं और वह अक्सर चुप रहता है। खोजने वाले उस पर तमाम लोगों का असर खोज सकते हैं पर मुझे उसमें एक ऐसी विशिष्ट मौलिकता दिखती है जिसके सहारे कोई उसकी कवितायें बिना नाम के भी पहचान सकता है। अभी राजकमल से उसका संकलन आया है आलाप में गिरह …कीमत है २०० रुपये। यहां कवर पेज़ और संकलन से तीन कवितायें) (1) ’ मालिक को ख़ुश करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने वाला मानवीय दिमाग़ और अपनी नस्ल का शुरुआती जूता ’ राजकुमारी महल के बाग़ में विचर रही थीं कि एक कांटे ने उनके पैरों के साथ गुस्ताख़ी की और बजाय उसे दंडित करने के राजकुमारी बहुत रोईं और बहुत छटपटाईं और बड़े जतन से उन्हें पालने वाले राजा पिता तड़पकर रह गए और महल के गलियारों और बार्जों में खड़े हो धीरे-धीरे बड़ी हो रही राजकुमारी के पैरों से किसी तरह कांटा निकलवाया और हुक्मनामा जारी करवाया कि राज्य में कांटों की गुस्ताख़ी हद से ज़्यादा हो गई है और उन्‍हें समाप्त करने की मुहिम शुरू कर दी जाए पर योजनाओं के असफल रहने और मुहिमों के बांझ रह जाने की शुरुआत के रूप