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जनवरी, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मुहब्बत, रतजगे , आवारागर्दी

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(मदन मोहन दानिश इस दौर के बेहद ज़रूरी शायर हैं। उनसे और अतुल अजनबी से हम शहर वालों को ढेरों उम्मीदे हैं और दोनों ही अब तक इस पर खरे उतारे हैं। पिछली बार कुमार विनोद साहब की गज़लें पेश करने के बाद तय किया की इनका भी आपसे परिचय कराया जाय...हालांकि ये परिचय के मुहताज नहीं। ये ग़ज़लें उनके संकलन 'अगर ' से ) (एक ) आप चलते अगर सलीक़े से तय न होता सफ़र सलीक़े से बाख़बर हमपे रश्क करने लगे यूं रहे बेख़बर सलीके से आबरू रह गयी फ़साने की कर दिया मुख़्तसर सलीक़े से बांध लेता है वो नज़र अक्सर उसपे रखिये नज़र सलीक़े से दिल न टूटे ग़रीब का दानिश दीजियेगा ख़बर सलीक़े से *-------------*--------------*----------------*----------------------*-------------------------* (दो ) इश्क़ की मंज़िल को पाने के लिये प्यार को कुछ कर गुज़रना चाहिये मानता है कौन अब ये मश्वरा वक़्त से हर वक़्त डरना चाहिये शेर कहने के लिये दानिश मियां रोज़ जीना, रोज़ मरना चाहिये *-------------*--------------*----------------*----------------------*-------------------------* और मेरा एक प्

किस्सा उस कम्बख्त औरत का

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सिलसिला शुरू तो खैर दया से ही हुआ था उस उदास सी सुबह जब पहली बार झिझकते कदमो से आयी वह नम आंखे गड़ाये जमीन पर और सूनी उंगलियों में फंसी दुख सी नीली कलम खोलते-खोलते फूट ही पडी आखिरकार तो जैसे उसका दुख कोलतार सा पसर गया सबके भीतर कुछ पल के लिए ढीले हो गये नियमों के बंधन कुछ पल के लिये ठहर गये कागज़ के टट्टू कुछ पल के लिये हुई आत्माओं में हरकत हमारे साथ की कुर्सी पर बैठी वह सहकर्मी बनने से पहले कई दिनों तक रही हमारे दिवंगत सहकर्मी की हतभागी विधवा सच मानिये हम तो बदलना भी नहीं चाहते थे उसकी मांग की सफ़ेदी सी स्थायी थी हमारी सहानूभूति लेकिन जो हुआ उसके बाद क्या करते आप जो होते हमारी जगह? अभी महीना भी नहीं बीता था पूरा कि आंखे खिल गईं ओस से धुली जाड़े की सुबहों सी हम चिताभष्म से सिक्के ढ़ूंढ़ने वाले कंगलों की तरह ढ़ूंढ़ते रहे उनमे अश्रु और आत्मदया की कतरने पर वहां धूप से टुकड़े थे आत्मविश्वास के और उस दिन तो मानो बिज़ली गिरी हमपर जब किसी चुटकुले पर हंस पड़ी वह ठठाकर और धुल गया चेहरे से उदासी का आखि़री धब्बा वैसे गनीमत थी अब भी और जिंदा था हमारा विश्वास कि चलो अब हंसी वसी तो कोई कहां तक रोक

जिनके बदले लिखा जा सकता है सिर्फ़ एक शब्द – समझौता

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परिचय यहां दर्ज़ करना है अपना नाम वे डिग्रियां जिन्हें पलट कर भी नहीं देखा वर्षों से विस्तार से देनी है जानकारी उस दफ़्तर की जिसमें घुसते ही थोड़ा और छोटा हो जाता हूं मैं पता लिखना है उस घर का जिसके लिये गिरवी पड़े हैं मेरी ज़िन्दगी के बीस साल यहां दर्ज़ करनी है एक जाति जिसके दांतों पर लहू है हज़ार बरस पुराना एक धर्म – जिसे वर्षों पहले कर चुका जीवन से बहिष्कृत लिखना है एक देश का नाम जो कभी हो ही नहीं सका मेरा यहां दर्ज़ करनी हैं तमाम ऐसी कार्यवाहियां जिनके बदले लिखा जा सकता है सिर्फ़ एक शब्द – समझौता! एक तस्वीर चिपकानी है सबसे अस्वाभाविक मुद्रा में एक तिथि लिखनी है उस घटना की जिसके लिये कतई ज़िम्मेदार नहीं मैं कितना कठिन है इन सबके बाद कविता लिखने वाले हाथों से एक अजनबी भाषा में दर्ज़ करना अपना हस्ताक्षर