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देखूंगा एक पूरा स्वप्न

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( अरसा पहले लिखी यह कविता आज नये साल की शुभकामनाओं के साथ) नये साल में नये साल में लिखूंगा एक पूरी कविता. गाऊंगा पूरे स्वर में कोई मुक्तिगान। ढ़ूढ़ूंगा कुछ पूरे दोस्त। भले नया न हो पर देखूंगा एक पूरा स्वप्न। जीना चाहूंगा एक पूरी ज़िदगी। भटकूंगा पूरेपन की तलाश में पूरे साल

जवाब दो फरीदा… उस भयावह भूल का हिसाब दो!

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( वैसे तो कुछ भी ख़ास नहीं है तेईस दिसंबर को…बस दो साल पहले इस दिन गुजरात में था…मोदी की दुबारा जीत हुई थी और उस दिन के अनुभव के आधार तीन कवितायें लिखी थीं जो आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं) गुजरात 2007 (एक) वे अब नहीं बोलते ऊंची आवाज़ में सिर झुकाये निकलते हैं अपनी बस्तियों से ईद पर मिलते हैं गले जैसे दे रहें हों दिलासे शोकगीतों की तरह बुदबुदाते हैं प्रार्थनायें इतनी कच्ची नींद में सोते हैं कि जगा देती है अक्सर घड़ी की टिक टिक भी बदल गये हैं उनके शब्दकोषों में हक़ और इंसाफ़ के मायने मौत अब नहीं रही उतनी बड़ी ख़बर दिल्ली की परिचर्चाओं से अनजान वे समझ चुके हैं बख़ूबी अल्पसंख्यक होने का मतलब अपनी बस्तियों में अब किसी का नहीं उन्हें इंतज़ार दांतो के बीच जीभ की तरह रहना सीखते हुए नहीं बची दांतो के अंत की कोई सांत्वना! पुलिस की फाईलों में दर्ज़ उनकी अर्जियों से शब्द झड़ गये हैं सारे मुक़दमों की भीड़ में गड्डमड्ड हो गईं हैं धारायें केंचुलों से उतर गये हैं सारे भ्रम और विश्वास तो भष्म हो ही गया था गुलबर्गा की आग़ में अब नहीं ब