संदेश

नवंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मै कलमा पढ़कर सुरैया नही बनना चाहती

चित्र
( यह कविता गुजराती की मशहूर कवियत्री और सामाजिक कार्यकर्ता सरूप बेन की है। इसे गुजराती से हिन्दी में अनुदित मैंने किया है...बाकी तो बात ही बोले तो बेहतर ) क्या है वज़ह मेरे जीने की नहीं मै क़लमा पढकर सुरैया नहीं बनना चाहती कि इस देश की तमाम सुरैया, फ़ातिमा, शहनाज़ या अमीना से अलग नहीं मैं, असंबद्ध नहीं,जुदा नहीं जब-जब इस देश के दुःशासनों के हाथों सरेआम खींचा जाता है उनका दुपट्टा मै निर्वस्त्र हो जाती हूं जब-जब हिंस्त्र पशु छूते हैं उनकी देह मसलते हैं, उधेडते हैं चींथते हैं, रौदतें हैं, चूसते हैं जबरन करते हैं प्रवेश तार-तार कर लहूलुहान कर डालते हैं तब-तब मैं भी घायल होती हूं उन सैकडों हज़ारों सांप्रदायिक अष्त्रों से जब-जब चीरकर सगर्भाओं के पेट ये बाहर खींच लाते हैं मानवजाति का बीज तब-तब मैं भी कट जाती हूं उजड जाती हूं और नष्ट हो जाती हूं समूल जब-जब गैस के सिलिण्डर अन्नपूर्णा से नरभक्षी पशु बन जाते हैं तब-तब मै भी जार-जार हो जाती हूं भष्मीभूत, राख-झडती हुई राख जब-जब अनाथ बच्चे कलपते हैं दूध के लि

चाय, अब्दुल और मोबाइल

चित्र
(कोई तीन साल पहले यह कविता कथन में छपी थी। आज इसे संकलन तैयार करते हुए दुबारा पढा तो लगा आप सब से शेयर करना चाहिए) रोज़ की तरह था वह दिन और दफ़्तर भी चेहरों के अलावा कुछ नहीं बदला था जहां वर्षों से थके हुये पंखे बिखेर रहे थे ऊब और उदासी फाईलें काई की बदरंग परतों की तरह बिखरीं थीं बेतरतीब अपनी अपार निष्क्रियता में सक्रिय आत्माओं का सामूहिक वधस्थल। रोज़ की तरह घड़ी की सुईयों के एक खास संयोग पर वर्षों के अभ्यस्त पांव ठीक सताइस सीढ़ियों और छियालिस क़दमो के बाद पहुंचे अब्दुल की दुकान पर चाय पीना भी आदत थी हमारी ऊब की तरह! रोज़ की तरह करना था उसे नमस्कार रोज़ की तरह लगभग मुस्कुराते हुये कहना था हमें- पांच कट फिर जुट जाना था कुर्सियों और अख़बार के जुगाड़ में रोज़ की तरह जताना था अफ़सोस बढ़ती क़ीमतों पर दुखी होना था बच्चों की पढाई से बीबी की बीमारी और दफ़्तर की परेशानियों से देश की राजनीति तक पर तिरछी निगाहों से देखते हुये तीसरे पेज़ के चित्र कि अचानक दाल में आ गये कंकड़ सी बिख़र गई एक पालीफ़ोनिक स्वरलहरी ! हमारी रोज़ की आदतों में शामिल नहीं था यह दृश्य उबल