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अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वे

(दोस्तों ने कहानी का एहतराम तो किया पर साथ ही इसरार भी कि इस ब्लाग को कविता के लिये ही आरक्षित रखा जाय…तो अब कवितायें ही रहेंगी यहां…लीजिये प्रस्तुत है कोई दस साल पहले लिखी यह कविता जो बाद में साखी मे छपी) वे सबसे ऊंची आवाज़ में नारे लगाकर भर देते हैं सबसे ज्यादा खालीपन सबसे दहकते लहू में भर देते हैं बर्फ का ठंढापन वे समझौते के ख़िलाफ़ बोलते हुए कर देते हैं सबकुछ समर्पित मांग लाते हैं हड्डियां दधीचि से और ड्राईंगरूम में सजाकर रख देते हैं वज्र वे ख़तरा टल जाने पर एकान्त टापू से निकल करते हैं सावधान सबसे क्रांतिकारी सिद्धांतों का परचम लिये सबसे महफ़ूज़ जगहों पर लगाते हैं पोस्टर और इस तरह धीरे-धीरे वे बदल देते हैं वह सब जो नहीं बदलना चाहिये

ब्लैक फ्रिंज

( अब असुविधा पर अपनी कविताओं के साथ-साथ हिन्दी के महत्वपूर्ण रचनाकारों की रचनायें पढवाने का भी विचार है। इस क्रम में आज कवि कथाकार विजय गौड़ की कहानी । हिन्दी की कहानियों में विविधता के अभाव को देखते हुए विज्ञान केंद्रित यह कहानी ख़ास लगती है ) लड़कों की खुसर-पुसर जारी थी। आपस में दूरियां कम होने पर भी पूरी आवाज में कोई नहीं बोल रहा था। बस एक दबा-दबा स्वर जो शब्दों के अन्त में उत्पन्न होता है... हस् स्सऽऽऽ ! यंत्रों को इधर-उधर रखने की आवाजें ध्यान भंग कर रही थीं। लैब-असिस्टेंट इधर-उधर घूम रहे थे। टैक्निशियन एक लड़के का वोल्टमीटर ठीक कर रहा था। वोल्टमीटर में डिफ्लैक्शन नाम मात्र को भी नहीं था। वह लड़का जब काफी देर तक छेड़खानी करते-करते परेशान हो गया तब मैंने ही उसे सलाह दी कि टैक्निशियन से कहे। लेकिन वह लड़का तो तब भी परेशान ही होता रहा। अन्त में मुझे ही टैक्निशियन को बुलाना पड़ा । एक लड़का और टैक्निशियन के पास आया। उसके ‘आई पीस‘ की क्रास वायर टूट गयी थी। मैंने जेब से परची निकाली और ‘आब्जेक्ट‘ लिखने लगा। एक लड़का मेरे पास आया। मैं घबरा गया। परची छुपानी चाही पर लड़के को देख आश्वस्त

विरूद्ध

नहीं किस-किस के विरूद्ध कौन सी रणभूमि में निरन्तर कटते-कटाते संघर्ष रत रोज लौट आते अपने शिविर में श्रांत-क्लांत रक्त स्वेद मिट्टी में सने घाव के अनगिन निशान लिये न जीत के उल्लास में मदमस्त न हार के नैराष्य से संत्रस्त। कोई आकस्मिक घटना नहीं है यह युद्ध न आरम्भ हुआ था हमारे साथ न हमारी ही किसी नियति के साथ हो जायेगा समाप्त शिराओं में घुलमिलकर दिनचर्या का कोई अपरिहार्य सा हिस्सा हो ज्यों बिलकुल असली इन घावों के निशान लहू बिल्कुल लहू की तरह - गर्म,लाल और गाढ़ा हथियारों के बारे में नहीं कह सकता पूरे विश्वास से इससे भी अधिक कठिन है दोस्तों और दुश्मनों के बारे में कह पाना अंधकार - गहरा और लिजलिजा अंधकार मानो फट पड़ा हो सूर्य और निरंतर विस्फोटों के स्फुलिंगों के अल्पजीवी प्रकाश में कैसे पहचाने कोई चेहरे बस यंत्रमानवों की तरह-प्रहार-प्रहार-प्रहार कई बार तो ऐसा लगता है कि अपने ही हथियारों से कट गिरा हो कोई अंग अपना ही बारूद छा गया हो दृष्टिपटल पर अपनी ही आवाज से फट गया हो कर्णपटल अपना ही कोई स्वप्न भरभराकर गिर पड़ा हो कांधे पर अपनी ही स्याही घुलमिल गय