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सितंबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेज़र गौतम राजरिशी के लिए

मेजर गौतम राजरिशि बीमार हैं, यह सूचना आज ही मुझे मिली। वह मेरे उन मित्रों में शामिल हैं जिनसे ब्लाग पर ही मुलाकात हुई। असुविधा के नियमित पाठक गौतम के भीतर एक संवेदनशील और निच्छल मन है जिसकी बानगी उनकी कविताओं और टिप्पणियों में मिलती है। असुविधा पर कविताओं के अलावा मैने कभी कुछ नहीं लगाया। लेकिन यह पोस्ट सिर्फ़ उन्हें शुभकामनायें देने के लिये। वह शीघ्र स्वस्थ हों तथा दीर्घजीवी हों इस शुभकामना के साथ। उनके ब्लाग पर तो इक्कीस तारीख की पोस्ट लगी है! कहीं यह सूचना ग़लत तो नहीं? काश कि ऐसा ही हो!

उधार माँगने वाले लोग

छोटी हो चादर तो पांव न होना ही बेहतर झुका ही रहता है हमेशा मांगने वाले का सर रहिमन वे नर मर चुके … सब याद था उन पसरी हुई हथेलियों को सुन रखे थे उन्होंने भी अपमान और बरबादियों के तमाम किस्से संतोष एक पवित्र शब्द था उनके भी शब्दकोष का लालच से नफ़रत करना ही सीखा था पूरी हिम्मत से बांध कर रखी थी मुट्ठियां चुपचाप नज़रें झुकाये गुज़र जाते थे बाज़ार से आ ही जाये दरवाज़े पर तो कस देते थे सिटकनियां दूर ही रखा जीभ को स्वाद से पैरों को पंख से आंखों को ख़्वाब से फिर भी पसर ही गईं हथेलियां एक दिन… दरवाजों के दरारों से पता नहीं कब सरक आईं ज़रूरतें पता नहीं कौन से रोग जाते ही नहीं जो चूरन और काढों से पता नहीं कौन सी भूख मिटती ही नहीं जो मेहनत से सपनों को तो ख़ैर हर बार कर दिया परे पर इनका क्या करें? जान ही न हो शरीर में तो कब तक तना रहे सिर ? भूख के आगे बिसात ही क्या कहानियों की ? और पसरीं वे हथेलियां यहां-वहां मरे वे नर मरने के पहले बार-बार झुका उनका सिर और मुंह को लग गई आदत छुपने की लजाईं उनकी आंखें और इतना लजाईं कि ढीठ हो गईं वो मुहावरे अब भी याद हैं

तैयारी एक लम्बी यात्रा की !

हर यात्रा में शामिल है लौटना अपने-अपने तरीके से लौटता है कोई रोज़ द़फ़्तर से पीठ पर लादे अपमानो की गठरी और पोस्टडेटेड चेक़ों में क़तरा -क़तरा बिकी सुरक्षा ओढ़कर सो जाता हैं स्वप्नहीन नींद में । कोई लौटता है प्यार की भरपूर तलाश के बाद गले में बांधे शर्तों का पत्थर और डूब जाता है सात फेरों के दलदल में. लौटता है महानगर की अनवरत भागती सडकों से निकल बरगद की ठहरी सी छाया में और अगले ही पल सोचने लगता है लौटने के बारे में। लौटता है नई ज़मीन की तलाश मे निकला कवि उदास हाथों में पुरस्कार संभाले। एक अधूरी कविता निकलती है बाज़ार में शब्द तलाशती और लौट आती है भकुआई सी। लौट जाते हैं जंगलों की तलाश में निकले बादल खेतों की मेढ़ से.... अजीब समय है यह दोस्तों अनन्त अनचाही यात्राओं में हर कोई जी रहा हो जैसे विस्थापन और ऐसे में बेहद ख़तरनाक है लौटना अगर नहीं है वह तैयारी एक लम्बी यात्रा की !