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मै अर्जुन नही हूँ

अर्जुन नहीं हूं मैं भेद ही नहीं सका कभी चिडिया की दाहिनी आंख कारणों की मत पूछिये अव्वल तो यह कि जान गया था पहले ही मिट्टी की चिडिया चाहे जितनी भेद लूं घूमती मछ्ली पर उठे धनुष से छीन लिया जायेगा तूणीर फिर यह कि रुचा ही नहीं चिडिया जैसी निरीह का शिकार भले मिट्टी का हो मै मारना चाहूंगा किसी आदमखोर को और मेरी नज़र हटती ही नहीं थी बाईं आंख की कातरता से मुझे कोई रुचि नहीं थी दोस्तों से आगे निकल जाने में भाई तो फिर भाई थे मै तो सजा कर रख देना चाहता था उस मिट्टी की चिडिया को पिंजरे में कि आसमान में देख सकूं एक और परिंदा मै उसकी आंखों में भर देना चाहता था उमंग स्वरों में लय, परों में उडान और ख़ुश हूं अब भी कि कम से कम मेरी वज़ह से नहीं देना पडा किसी एकलव्य को अंगूठा।

वे चुप हैं

हत्यारे की शाल की गुनगुनी ग़र्मी के भीतर वे चुप हैं वे चुप हैं गिनते हुए पुरस्कारों के मनके कभी-कभी आदतन बुदबुदाते हैं एक शहीद कवि की पंक्तियाँ उस कविता से सोखते हुए आग वे चुप हैं वे चुप हैं मन ही मन लगाते आवाज़ की कीमत संस्थाओं की गुदगुदी गद्दियों में करते केलि सारी आवाज़ों से बाखबर वे चुप हैं वे चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं आवाज़ के ख़तरे वे चुप हैं कि उन्हें मालूम हैं चुप्पी के हासिल चुप हैं कि धूप में नहीं पके उनके बाल अनुभवों की बर्फ़ में ढालते विचारों की शराब वे चुप हैं चुप्पी ख़तरा हो तो हो ज़िन्दा आदमी के लिए तरक्कीराम के लिए तो मेहर है अल्लाह की उसके करम से अभिभूत वे चुप हैं

एक सैनिक की मौत

चित्र
(The Spanish struggle is the fight of reaction against the people, against freedom. My whole life as an artist has been nothing more than a continuous struggle against reaction and the death of art. How could anybody think for a moment that I could be in agreement with reaction and death? ... In the panel on which I am working, which I shall call Guernica, and in all my recent works of art, I clearly express my abhorrence of the military caste which has sunk Spain in an ocean of pain and death... Pablo picasso on Guernica) तीन रंगो के लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा लौट आया है मेरा दोस्त अखबारों के पन्नों और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर भरपूर गौरवान्वित होने के बाद उदास बैठै हैं पिता थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच बार-बार फूट पड़ती है पत्नी कभी-कभी एक किस्से का अंत कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है और किस्सा भी क्या? किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन फिर सपनीली उम्र आते-आते सिमट जाना सारे सपनो का इर्द-गिर्द एक अ

अंतिम इच्छा

शब्दों के इस सबसे विरोधाभासी युग्म के बारे में सोचते हुए अक्सर याद आते हैं गा़लिब वैसे सोचने वाली बात यह है कि अंतिम सांसो के ठीक पहले जब पूछा जाता होगा यह अजीब सा सवाल तो क्या सोचते होंगे वे लोग कालकोठरी के भयावह एकांत में जिनके गले पर कई बार कसी जा चुकी होती है वह बेमुरौव्वत रस्सी हो सकता है एकाएक कौंध जाता हो फ़ैसले के वक़्त फूट पड़ी पत्नी का चेहरा या अंतिम मिलाई के समय बेटे की सहमी आंखे बहुत मुमकिन है किए-अनकिए अपराधों के चित्र सिनेमा की रील की तरह गुज़र जाते हों उस एक पल में या फिर बचपन की कोई सोंधी सी याद किसी दोस्त के हांथों की ग़रमाहट कोई एक पल कि जिसमें जी ली गई हो ज़िंदगी वैसे अंधेरों से स्याह लबादों में अनंत अबूझ पहेलियां रचते वक़ील और दुनिया की सबसे गलीज़ भाषा बोलते पुलिसवालों का चेहरा भी हो सकता है ठीक उस पल की स्मृतियों में कितने भूले-बिसरे स्वप्न कितनी जानी अनजानी यादें कितने सुने अनसुने गीत एकदम से तैरने लगते होंगे आंखांे में जब बरसों बाद सुनता होगा वह उम्मीद और ज़िंदगी से भरा यह शब्द - इच्छा और फिर कैसे न्य