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हमारे समय में

(यह कविता कोई सात साल पहले लिखी गयी थी और उस समय अक्षर पर्व में प्रकाशित भी हुई थी। पता नहीं क्यूआज इसे पोस्ट करने का जी हुआ) हमारे समय में शेर खतरनाक से दयनीय में तब्दील हो चुका है और मनुष्यों की सारी चिंता जानवरों के इर्द गिर्द सिमट गयी है। हमारे समय में अराजनीतिक होना महान राजनीतिग्य होने की सबसे ज़रूरी शर्त है और गरीबी हटाने का सर्वमान्य तरीका सबसे रईसों को और रईस बनाना है हमारे समय में कविता बंद कमरे में सिसकती औरत है और बंधी मुट्ठी सस्ती राजनीति यानी यह बिलकुल सही समय है सबकुछ उलट-पुलट देने का

साहित्यिक महामानव मुर्दाबाद

इस बार बडे व्यथित मन से गोरख पान्डे की एक ग़ज़ल लगा रहा हूं। पता नहीं कि वजन वगैरह बराबर है या नहीं। आप इसे ग़ज़ल ना मानना चाहें तो न माने…महत्वपूर्ण इसकी अर्थवत्ता है) रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है ऊंचे से ऊंचे उससे भी ऊंचे और ऊंचे जो रहते हैं उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है गालिब-मीर कि दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं जिनका सूरज डूबता जाये तख़्ता पलटता जाए है।

चूल्हा

( हिन्दी में पीढा, चौकी, कुदाल जैसी अतीत हो चुकी चीजों पर लिखी अतीतग्रस्त कविताओं की लम्बी शृंखला है। चूल्हा भी ऐसा ही पवित्र प्रतीक है ... पर मै जब इसे देखता हूँ तो यह अलग ही दीखता है) चूल्हे की याद करता हूँ तो याद आती है ताखे पर टिमटिमाती ढिबरी जलते - बुझते गोइंठे * की जुगनू सी नाचती लुत्तियां और इन सबकी आंच में दिपदिपाता माँ का संवलाया चेहरा उन गीतों की उदास धुनें अब तक गूंजती हैं स्मृतियों की अनंत गुहा में लीपते हुए जिन्हें गाया करती थीं बुआ छत तक जमी कालिख दीवारों की सीलन पसीने की गुम्साइन गंध आँखों के माडे दादी के ताने चिढ- गुस्सा- उकताहट - आंसू इतना कुछ आता हैयाद चूल्हे के साथ कि उस सोंधे स्वाद से मितलाने लगता है जी… * कण्डा