संदेश

जनवरी, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मत करना विश्वास

चित्र
मत करना विश्वास अगर रात के मायावी अन्धकार में उत्तेजना से थरथराते होठों से किसी जादुई भाषा में कहूं सिर्फ़ तुम्हारा हूँ मैं मत करना विश्वास अगर सफलता के श्रेष्ठतम पुरस्कार को फूलों की तरह गूँथते हुए तुम्हारे जूडे मे उत्साह से लडखडाती हुई भाषा में कहूं सब तुम्हारा ही तो है! मत करना विश्वास अगर लौट कर किसी लम्बी यात्रा से बेतहाशा चूमते हुए तुम्हे एक परिचित सी भाषा में कहूं सिर्फ़ तुम आती रही स्वप्न में हर रात हालांकि सच है यह कि विश्वास ही तो था वह तिनका जिसके सहारे पार किए हमने दुःख और अभावों के अनंत महासागर लेकिन फ़िर भी पूछती रहना गाहे बगाहे किसका फ़ोन था कि मुस्करा रहे थे इस क़दर ? पलटती रहना यूं ही कभी कभार मेरी पासबुक करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास! हंसो मत ज़रूरी है यह विश्वास करो तुम्हे खोना नही चाहता मैं

आग

चित्र
इस आग से नहीं पक सकती एक भी रोटी इस आग मे जले आलुओं से नही बुझ सकती किसी होरी की आग नही काटी जा सकती इस आग मे धुंधलाई सर्दियों की एक भी शाम इस आग के चतुर्दिक न शोकगीत गाये जा सकते हैं न किये जा सकते हैं उल्लास के नृत्य कोई सभ्यता नही बस सकती इसके इर्दगिर्द हज़ार वर्षों मे भी इस आग में झुलसे जंगलो में फ़िर कभी नही उगती कोई कोंपल किसी फूल सा नही होता इसका रंग नही देखा जा सकता इसकी रोशनी में कोई दृश्य दृश्यों को सोख जाती है यह आग! सपनों में भी सूर्य जितना दूर ही देखना चाहता हूँ बीस करोड़ डिग्री सेल्सिअस की यह आग !!

गाँव में अफसर

उस तरह नहीं आता गाँव में अफसर जैसे आती है बिटिया हुलसकर ससुराल से या नई दुल्हन लाँघते आशंकाओं के पहाड़ उस तरह तो बिल्कुल नहीं जैसे हाट बाजार से भकुआये हुए आजकल लौटते हैं काका और वैसे भी नहीं जैसे छुटि्टयों में लौटते हैं कमासुत। न पगलाई नदी की बाढ़ सा उफनता न इठलाता पुरवा की मदमस्त बयारों सा जेठ की उन्मत्त लू या सावनी फुहारों सा भी नहीं अफसर तो बस अफसर सा आता है गाँव में ! सीम पर पड़ते हैं पाँव और नगाड़े सी गूँज जाती है धमक धरती की शिराओं में मुस्कुराता है तो हँसने लगती है चौपाल और तनते ही भृकुटियों के सूख जाते हैं हरे भरे ताल माथे की लकीरों से मुचमुचाये कुरते की काई सी नीली जमीन संवारते अगियाए लोटे से गुनते हैं चौकीदार जुगत बरसों से ठहरी पांच सौ की रकम बढ़ाने की सिफारिश की लाज आती है अब जिसे पगार कहते मुर्गे के साथ हलाल कर कई सारे अंखुआते स्वप्न रोपता है कोई बंजर होती जा रही उम्र पर किसी गलीज सी नौकरी की उम्मीद संदूक की सात परतों से निकालते हुए दहेजू बर्तन और पुरखों से माँगते हुए क्षमा जुटाते हैं सरपंच अगली किस्तों के भुगतान की शर्तें सन