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नवंबर, 2008 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दे जाना चाहता हूँ तुम्हे

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ऊब और उदासी से भरी इस दुनिया में पांच हंसते हुए सालों के लिए देना तो चाहता था तुम्हे बहुत कुछ प्रकृति का सारा सौंदर्य शब्दों का सारा वैभव और भावों की सारी गहराई लेकिन कुछ भी नहीं बच्चा मेरे पास तुम्हे देने के लिए फूलों के पत्तों तक अब नहीं पहुंचती ओस और पहुँच भी जाए किसी तरह बिलकुल नहीं लगती मोतियों सी समंदर है तो अभी भी उतने ही अद्भुत और उद्दाम पर हर लहर लिख दी गयी है किसी और के नाम पह्दों के विशाल सीने पर अब कविता नहीं विज्ञापनों के जिंगल सजे हैं खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न और न बंदूकें ... बस बिखरी हैं यहाँ-वहां नीली पद चुकीं लाशें सच मनो इस सपनीले बाज़ार में नहीं बचा कोई दृश्य इतना मनोहारी जिसे दे सकूँ तुम्हारी मासूम आँखों को नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र जिसे दे सकूँ तुम्हे पहचान की तरह बस समझौतों और समर्पण के इस अँधेरे समय में जितना भी बचा है संघर्षों का उजाला समेटकर भर लेना चाहता हूँ अपनी कविता में और दे जाना चाहता हूँ तुम्हे उम्मीद की तरह जिसकी शक्ल मुझे बिलकुल तुम्हारी आँखों सी लगती है

काले कपोत

किसी शांतिदूत की सुरक्षित हथेलियों में उन्मुक्त आकाश की अनंत ऊँचाइयों की निस्सीम उडान को आतुर शरारती बच्चों से चहचहाते धवल कपोत नही हैं ये न किसी दमयंती का संदेशा लिए नल की तलाश में भटकते धूसर प्रेमपाखी किसी उदास भग्नावशेष के अन्तःपुर की शमशानी शान्ति में जीवन बिखेरते पखेरू भी नही न किसी बुजुर्ग गिर्हथिन के स्नेहिल दाने चुगते चुरगुन मंदिरों के शिखरों से मस्जिदों के कंगूरों तक उड़ते निशंक शायरों की आंखों के तारे बेमज़हब परिंदे भी नही ये भयाकुल शहर के घायल चिकित्सागृह की मृत्युशैया सी दग्ध हरीतिमा पर निःशक्त परों के सहारे पड़े निःशब्द विदीर्ण ह्रदय के डूबते स्पंदनों में अँधेरी आंखों से ताकते आसमान गाते कोई खामोश शोकगीत बारूद की भभकती गंध में लिपटे ये काले कपोत ! कहाँ -कहाँ से पहुंचे थे यहाँ बचते बचाते बल्लीमारन की छतों से बामियान के बुद्ध का सहारा छिन जाने के बाद गोधरा की उस अभागी आग से निकल बडौदा की बेस्ट बेकरी की छतों से हो बेघर एहसान जाफरी के आँगन से झुलसे हुए पंखों से उस हस्पताल के प्रांगन में ढूँढते एक सुरक्षित सहारा शिकारी आएगा - जाल बिछायेगा

कहाँ होंगी जगन की अम्मा

सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते अचानक पहुंच जाता हूं बचपन के उस छोटे से कस्बे में जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं और मां बांस की रंगीन सी डलिया में दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर जहां इंतज़ार में होती थीं सुलगती हुईहांड़ियों के बीच जगन की अम्मा. तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी बस जगन की अम्मा थीं वह हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं एक पति भी रहा होगा जरूर पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान. हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर नहीं था कहीं उसका विज्ञापन हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू और तमाम दृ’यों में सबसे खूबसूरत था वह दृ

सबसे बुरे दिन

सबसे बुरे दिन नहीं थे वे जब घर के नाम पर चौकी थी एक छह बाई चार की बमुश्किलन समा पाते थे जिसमे दो जि+स्म लेकिन मन चातक सा उड़ता रहता था अबाध! बुरे नहीं वे दिन भी जब ज़रूरतों ने कर दिया था इतना मजबूर कि लटपटा जाती थी जबान बार बार और वे भी नहीं जब दोस्तों की चाय में दूध की जगह मिलानी होती थी मज+बूरियां. कतई बुरे नहीं थे वे दिन जब नहीं थी दरवाजे पर कोई नेमप्लेट और नेमप्लेटों वाले तमाम दरवाजे बन्द थे हमारे लिये. इतने बुरे तो खैर नहीं हैं ये भी दिन तमाम समझौतों और मजबूरियों के बावजूद आ ही जाती है सात-आठ घण्टों की गहरी नींद और नींद में वही अजीब अजीब सपने सुबह अखबार पढ़कर अब भी खीजता है मन और फाइलों पर टिप्पणियाँ लिखकर ऊबी कलम अब भी हुलस कर लिखती है कविता. बुरे होंगे वे दिन अगर रहना पड़ा सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला दोस्तों की शक्लें हो गई बिल्कुल ग्राहकों सीं नेमप्लेट के आतंक में दुबक गया मेरा नाम नींद सपनों की जगह गोलियों की हो गई गुलाम और कविता लिखी गई फाईलों की टिप्पणियांे सी. बहुत बुरे होंगे वे दिन जब रात की होगी बिल्कुल देह जैसी और उम्मीद की चेकबुक

एक सैनिक की मौत

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( The Spanish struggle is the fight of reaction against the people, against freedom. My whole life as an artist has been nothing more than a continuous struggle against reaction and the death of art. How could anybody think for a moment that I could be in agreement with reaction and death? ... In the panel on which I am working, which I shall call Guernica, and in all my recent works of art, I clearly express my abhorrence of the military caste which has sunk Spain in an ocean of pain and death... Pablo picasso on Guernica ) तीन रंगो के लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा लौट आया है मेरा दोस्त अखबारों के पन्नों और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर भरपूर गौरवान्वित होने के बाद उदास बैठै हैं पिता थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच बार-बार फूट पड़ती है पत्नी कभी-कभी एक किस्से का अंत कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है और किस्सा भी क्या? किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन फिर सपनीली उम्र आते-आते सिमट जाना सारे सपनो का इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के अब इसे संयो